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________________ सम्यग्दृष्टि को परखने का दूसरा चिन्ह : संवेग । १८३ में भी रहेगा। अमूर्त होने से वह नित्य, अखण्ड, अक्षय, अनादि-अनन्त है। (३) शुद्ध निश्चयनय से जीव ज्ञानादिक शुद्धभावों का और अशुद्ध निश्चयनय से राग-द्वषादि भावकर्मों का कर्ता है । अनुपचरित व्यवहारनय से वह स्वयं द्रव्यकर्मों का कर्ता है। (४) कर्मों के उदय से होने वाली अवस्थाओं का भोक्ता अथवा तज्जनित भावों का भोक्ता भी स्वयं जीव ही है। निश्चय और व्यवहार नय से कर्त त्व के समाव भोक्तृत्व भी घटित कर लेना चाहिए। (५) मोक्ष है, अर्थात् -ऐसी भी अवस्था सम्भव है जब. समस्त कर्मों से सदा-सदा के लिए आत्मा पृथक् हो जाता है। यद्यपि कर्मसंयोग प्रवाह रूप से अनादि है, फिर भी कर्म उनके फलभोग के पश्चात् आत्मा से पृथक हो सकते हैं। उस समय आत्मा कर्मों से सर्वथा मुक्त होकर अपने शुद्ध स्वभावरमणरूप मोक्षसुख को प्राप्त कर लेता है। (६) मोक्ष का उपाय है । परन्तु मोक्ष अनायास ही नहीं हो जाता, न ही दूसरी किसी शक्ति या ईश्वरादि के द्वारा दिया जाता है, वह स्वयं के पुरुषार्थ से प्राप्त होता है। सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप, ये चारों मिलकर मोक्ष मार्ग है। ज्ञानोपयोग, दर्शनोयोग, आत्मा की विशुद्धि के लिए समिति, गुप्ति, परीषहजय, महाव्रतादि चारित्र तथा बाह्याभ्यन्तर तप ही मोक्ष पाने के --- कर्मबन्धन से सर्वथा छूटने के उपाय हैं। यह उपाय-मोक्षमार्ग आत्मा में ही है। - इस प्रकार छह स्थानों का चिन्तन करने से आत्मा संवेग प्राप्त करता है और मोक्ष-सुख की प्राप्ति के लिए तीव्र प्रयत्न करता है। संवेग का फल भगवान् महावीर ने पावापुरी के अपने अन्तिम प्रवचन में कहा था संवेगेणं अणुत्तरं धम्मसद्ध जणथइ । धम्मसद्धाए संवेगं हवमागच्छइ । अणंताणुबन्धी-कोह-माण-माया-लोभे खवेइ । नवं च कम्मं न बंधा; तप्पच्चयं च मिच्छत्तविसोहि काऊण दंसणाराहए भवइ । वंसणविसुद्धाए णं अत्थेगइए तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झइ । सोहीए णं विसुद्धाए तच्चे पुणो भवग्गहणं नाइक्कमइ। अर्थात्--संवेग से अनुत्तर धर्म पर श्रद्धा उत्पन्न होती है और धर्मश्रद्धा से शीघ्र ही संवेग उत्पन्न होता है । जीव अनंतानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ का क्षय करता है । नये कर्म का बन्ध नहीं करता और उत्तराध्ययन. अ. २६, बोल १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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