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________________ सम्यग्दृष्टि को परखने का दूसरा चिन्ह : संवेग | १७७ दुःख रूप मानते हैं, उन्हें त्याज्य समझते हैं। इसीलिए वे संवेगवान् सम्यग्दृष्टि एकान्त, शाश्वत, मोक्षमुख की अभिलाषा करते हैं। क्योंकि वे मानते हैं कि संसार के पदार्थों में आसक्त कोई भी जीव सुखी नहीं है। कहा वि सुही देवता देवत्ताएं, गवि सुही पुढवीवई राया। ण वि सुही घणवइ सेषावई एगंतसुही मुणि वीयरागी॥ अर्थात्-देवलोक के देव भी सुखी नहीं है, पृथ्वीपति-राजा चक्रवर्ती आदि भी सुखी नहीं हैं । न ही धनाढ्य सेठ या सत्ताधीश सेनापति सुखी हैं । अगर कोई एकान्त (सर्वथा) सुखी हैं तो वीतराग मुनि ही हैं। वीतरागमुनि या वीतराग तीर्थंकरों के पथ पर चलने वाले कर्मों का क्षय करने के लिए अहर्निश पुरुषार्थी श्रमण सुखी हैं । वस्तुतः सुखी वही है, जो कर्मों का क्षय करने के लिए अहर्निश प्रयत्न करता है। दूसरे शब्दों में कहें तो कर्मों के क्षय करने की तीव्रता ही मोक्षसुख की अभिलाषा को पूर्ण करने वाली है। इसलिए आचार्यों ने संवेग के जो दोनों लक्षण बताए हैं, वे एक दूसरे से परस्पर सम्बन्धित हैं। मोक्ष सुख के प्रति अनुराग मोक्षविरोधी संसार-दुःख के प्रति अरुचि से ही सार्थक हो सकता है। भवभ्रमण या कर्मबन्धन एक प्रकार से दुःखरूप ही हैं, उनसे मुक्त होने या उनसे या उनके कारणों से दूर रहने की तीव्रता ही मोक्षसूख की अभिलाषा की पूर्ति करती है। सांसारिक विषयभोगों के प्रति अभिलाषा होगी तो मोक्ष की ओर गति नहीं हो सकेगी और मोक्ष की अभिलाषा भी भोगों के प्रति अरुचि, कर्मों से, भवभ्रमण रूप दुःखों से भीति या विरक्ति होने पर ही हो सकेगी। ___ संवेग की प्राप्ति या वृद्धि कैसे हो ? यह तो स्पष्ट हो गया कि मोक्षसुख की अभिलाषा संवेग है । परन्तु देखना यह है कि मोक्षसुख की अभिलाषारूप संवेग की प्राप्ति या वृद्धि कैसे हो सकती है । लाटीसंहिता में संवेग का लक्षण बताते हुए कहा गया है संवेगः परमोत्साहो धर्म धर्मफले चितः । सद्धर्मेस्वनुरागो वा, प्रीतिर्वा परमेष्ठिषु ॥ अर्थात्-संवेग चित्त या चेतन का परम उत्साह है, जो सर्वज्ञ वीतरागोक्त रत्नत्रयरूप धर्म में, या अहिंसादिमय धर्म में अथवा क्षमादिरूप आत्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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