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________________ १७६ | सद्धा परम दुल्लहा जिसे यह दृढ़ निश्चय हो जाएगा कि संसार में सर्वत्र दुःख ही दुःख है, जैसा कि उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है जम्म दुक्खं जरा दुक्खं रोगा य मरणाणि य । अहो दुक्खो हु संतारे, जत्थ किस्संति जन्तवा ॥ जन्म दुःखकारक है, बुढ़ापा दुःखद है, रोग और मत्यू भी दुःख कारक है। आश्चर्य है कि संसार में सर्वत्र दुःख हो दुःख है, वैषयिक सुख या वस्तुनिष्ठ सुख भी परिणाम में दुःखरूप हैं, क्षणिक हैं, और उनकी प्राप्ति, सुरक्षा और वियोग, तीनों ही दुःखमय हैं। फिर भी अज्ञानी जीव उस संसार में रहकर क्लेश पाते हैं। वे इस संसार से--भवभ्रमण से, और सांसारिक दुःख से छूटने और शाश्वत, अनन्त मोक्ष सुख को पाने की भावना एवं चेष्टा नहीं करते । संसार में परिभ्रमण कराने के मुख्यतया दो ही कारण हैं ... विषय और कषाय । जब मनुष्य इष्ट विषयों के प्रति राग-मोह एवं आसक्ति और अनिष्ट के प्रति द्वेष, अरुचि या घृणा करता है तथा क्रोध मान, माया और लोभ को घटाना या मिटाता नहीं, तब इनसे कर्मबन्धन होते हैं, और कर्मबन्धन से संसार-परिभ्रमण होता है। इसी प्रकार मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद. कषाय और योग ये पाँच आम्रव अथवा हिंसा, असत्यादि आस्रव भी कर्मों के आगमन के स्रोत, कर्मबन्ध के निमित्त और परम्परा से भवभ्रमण के कारण हैं। भवभ्रमण के दुःख से आत्मा का मुक्त होना ही मोक्ष है । मोक्ष तभी होगा जब भवभ्रमण रूप दुःख में डालने वाले समस्त कर्मों से आत्मा मुक्त होगा। आत्मा जब तक दुःख से सर्वथा विमुक्त नहीं होता, तब तक उसे नाना प्रकार के दुःख भोगने ही पड़ते हैं । भगवती सूत्र में चौबीस दण्डकवर्ती जीवों की चर्चा करते हुए कहा गया है देवलोक के देवों को व्यवहार से दिव्य सुख सम्पन्न कहा जाता है, फिर भी वे दुःखी हैं, क्योंकि कर्म अपने आप में दुःख रूप हैं और देव कर्म से विमुक्त नहीं हैं, अतएवं दुःखी हैं। यह बात दूसरी है कि सातावेदनीय कर्म के उदय से उन्हें कर्मों के दुःख का वेदन (अनुभव) नहीं होता, परन्तु शुभ या अशुभ कर्म दुःख के ही कारण हैं। अतएव संसार का दुःख तो दुःखरूप है ही, संसार का सुख भी दुःखरूप है। संसार के पदार्थों में सुख होता तो चक्रवर्ती जैसे परमऋद्धिमान वैभवशाली व्यक्ति क्यों सांसारिक पदार्थों का त्याग करते । यद्यपि अव्रती श्रावक सम्यग्दृष्टि साधुओं की तरह सांसारिक पदार्थों का त्याग नहीं का सकते, किन्तु वे सांसारिक पदार्थों को सुखरूप नहीं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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