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________________ सम्यग्दृष्टि को परखने का दूसरा चिन्ह : संवेग | १७५ वह थोड़ी देर के लिए दूसरी दिशा में रहेगा, परन्तु ज्यों ही हाथ हटाया कि वह पुनः उत्तर दिशा की ओर स्थिर हो जाएगा । किन्तु संवेगवान् व्यक्ति तो किसी के दबाने, सताने या भय दिखाने से अथवा धन, यश, सम्मान, पद, प्रतिष्ठा आदि का प्रलोभन देने से अपनी दिशा बदलता नहीं, वह अपने निश्चित ध्येय या आदर्श की ओर ही मुख रखता है, उसी में तन्मय हो जाता है, उसी की प्राप्ति के लिए अहर्निश प्रयत्नशील रहता है । श्वेताम्बिका के प्रदेशी राजा एक दिन नास्तिकता के आवेश से युक्त थे । उन्हें आत्मा के विकास, हित या कल्याण का जरा भी विचार नहीं आता था । वे आत्मा, परमात्मा, स्वर्ग-नरक आदि को बिलकुल नहीं मानते थे । परन्तु जैन श्रावक चित्त प्रधान के निमित्त से वे एक दिन केशी श्रमण महामुनि के सान्निध्य में पहुँच गए । उन्होंने आत्मा और परमात्मा का स्वरूप तथा आत्मा के हित, विकास या मंगल कल्याण का ऐसा मार्ग बताया कि प्रदेशी राजा का हृदय - परिवर्तन हो गया । उनका आवेग संवेग के रूप में परिणत हो गया । फिर तो आत्मा के विकास एवं कल्याण की ही एक मात्र धुन लगी । विषयसुख, सरस - स्वादिष्ट खानपान, कामभोग, शरीर शुश्रूषा आदि सब फीके लगने लगे । संवेग में वे इतने तल्लीन हो गए कि रानी सूरिकान्ता द्वारा विषयभोगों की विनम्र प्रार्थना करने पर भी यहाँ तक कि भोजन में प्राणघातक विष दिये जाने पर भी वे अपने आदर्श से जरा भी विचलित नहीं हुए । यह है संवेग का परमार्थ, जो जीवन को सम्यनिष्ठ बना देता है । संवेग के लक्षण सम्यग्दृष्टि के मन या आत्मा का वेग (संवेग) जब शुद्ध आत्मतत्व या परमात्मतत्त्व के साक्षात्कार की ओर होता है, तब उसे यह भी स्पष्ट प्रतीत हो जाता है कि मेरी आत्मा अब तक विविध गतियों और योनियों में परिभ्रमण करती रही और कर्मों के कारण नाना दुःख भोगती रही अब मैं अगर शुद्ध आत्म स्वरूप को प्राप्त करना चाहता हूँ तो शुद्ध आत्मा की उपलब्धि में साधक तथा शाश्वत सुख -- मोक्ष सुख को प्राप्त कराने वाले तत्वों की ओर तीव्र अभिरुचि होनी चाहिए । इसी दृष्टि से श्वेताम्बर जैनाचार्यों ने संवेग के दो लक्षण बताए हैं (१) मोक्ष - सुखाभिलाषा । (२) भवबन्धन से मुक्त होने की अभिरुचि, अथवा भवभ्रमण से भीति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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