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________________ १७४ | सद्धा परम दुल्लहा है, भाववेग की बात है। जो अधोमुखी भाववेग होता है, वह पतन के गड्ढे में गिराने वाला होता है, जबकि ऊर्ध्वमुखी भाववेग अभीष्ट स्थान पर पहुँचाने वाला होता है । यही संवेग का वास्तविक अर्थ है। मिथ्यादृष्टि की बुद्धि, मन एवं इन्द्रियों का वेग भौतिक विषय सुखों की ओर बहता है, जबकि सम्यग्दृष्टि की बुद्धि, मन एवं इन्द्रियों का वेग बहता है-आत्मिक सुखों की ओर, मोक्ष सुख की ओर । सम्यग्दृष्टि अपने अधोमुखी वेग को भी ऊर्ध्वमुखी बना लेता है। संवेग का फलितार्थ ___ सम् शब्द आत्मा अथवा परमात्मा के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है। तब संवेग का अर्थ होगा-- आत्मा या परमात्मा की ओर तीव्रतापूर्वक गमन। तात्पर्य यह है कि जब आत्मा को स्वानुभूति, आत्मानुभूति अथवा आत्मा के सच्चिदानन्दमय स्वरूप की अनुभूति, अथवा परमात्मा से मिलन की तीव्रता, तड़फन या उत्कण्ठा जागती है, तब उसे संवेग कहा जाता है। इसी 'संवेग' से प्रेरित होकर योगीश्वर आनन्दघनजी जंगल में चले गये थे। उनके मन में एक ही रट लगी थी __"म्हारो कंचनवर्णो नाह, मने कोई मिलावे।" जब जीवन में संवेग आता है तो ऊर्ध्वमुखी वेग के रूप में एक ही धुन होती है, एक ही मन्थन चलता है। उस समय उसे आत्मानुभूति या परमात्ममिलन की इतनी लगन होती है, कि वह भूख, प्यास या थकान, शरीर का विश्राम आदि सब भूल जाता है। आनन्दघनजी को परमात्म-मिलन की इतनी उत्कट लगन थी कि वे सब कुछ भूलकर एकमात्र उसी खोज में तल्लीन हो गए थे। जब हृदय में संवेग जागता है, तब साधक उसकी ओर दौड़ लगाये बिना रह ही नहीं सकता। वह अपने आदर्श, अपने अन्तिम लक्ष्य या ध्येय की ओर दौड़ लगाता है। उसका विश्वास, उसकी निष्ठा या श्रद्धा इतनी सुदृढ़ या परिपक्व हो जाती है कि पतन के मार्ग, या धन, यश प्रतिष्ठा, सुख-सुविधा, या सरस स्वादिष्ट खानपान या मान-सम्मान की ओर उसकी दृष्टि जाती ही नहीं, किसी भी भय, प्रलोभन या स्वार्थ के वश होकर अपने निश्चित आदर्श या ध्येय से वह विचलित नहीं होता। कुतुबनुमा यंत्र की सुई सदैव उत्तर दिशा की ओर होती है। उसमें चुम्बक लगा होता है, उसके कारण उसका मुख उत्तर दिशा में ही रहता है । अगर कोई व्यक्ति उस सुई को हाथ से पकड़ कर दबाये रखे तो भले ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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