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________________ सम्यग्दृष्टि को परखने का दूसरा चिन्ह : संवेग | १७३ मजाक करने लगा। इतने में एक घटना ऐसी बनी कि गिरधर के जीवन ने पलटा खाया । जिस समय मुनिराज उसके घर में प्रविष्ट हुए थे, तभी एक कसाई एक बकरे को लेकर आ रहा था। बकरा गिरधर के घर के आगे रुक गया। वह वहाँ से एक इंच भी इधर-उधर नहीं हटा। कसाई ने बहुत प्रयत्न कर लिये परन्तु सव व्यर्थ । ज्ञानी मुनिराज ने बकरे को देखकर मन ही मन संसार की दशा का विचार किया और सहसा उनके मुख से 'अहा हा' उद गार निकले । यह सुनकर गिरधर उस समय तो कछ नहीं बोला परन्तु बाद में उपाश्रय में जाकर उसने मुनिवर से विनयपूर्वक समाधान माँगा तो उन्होंने कहा- "वह बकरा तुम्हारा पूर्वजन्म का पिता था। उसने अनेक मनुष्यों का शोषण करके, ऊँचा ब्याज लेकर तुम्हारे लिये धन इकट्ठा किया था, किन्तु वह उस पापकर्म के फलस्वरूप बकरा बना और कसाई ने इसे खरीद लिया है । वह इसे दौड़ा कर अपने यहाँ ले जा रहा था, मगर पूर्वजन्म के संस्कारवश वह तुम्हारे घर के सामने आकर अड़ गया। जब वश न चला तो कसाई डंडे मारकर उसे आगे ले गया।" यह सुनते हो गिरधर को सर्वप्रथम विचार आया कि मैं उस बकरे को कसाई के हाथ से छुड़ा लाऊँ । जब वह उतावला होकर जाने लगा तो मुनिराज ने कहा-"अब कसाई ने उसका काम तमाम कर दिया है, तुम्हें वह नहीं मिलेगा। अब तो तुम अपने कर्मों का विचार करो। तुम अपनी स्त्री में आसक्त होकर देवगुम-धर्म से विमुख बन रहे हो, यह तुम्हारे लिए अहिकर है ।" यह सुनते ही गिरधर का स्त्री के प्रति मोह उतर गया। उसे धर्म और धर्म गुरु के प्रति श्रद्धा जागी। इसे 'संवेग' तो नहीं कह सकते, 'प्रतिवेग' कहा जा सकता है । वैसे देखा जाए तो संसार के समस्त प्राणियों की, विशेषतः अधिकांश मनुष्यों की दौड़ विषय-सुखों की ओर है । वे सुख के अभिलाषी तो हैं, किन्तु दौड सूख की मगमरीचिका की ओर लगाते हैं, जहाँ सूख की प्यास बुझती नहीं केवल सुख का पानी दिखता है। किन्तु अज्ञान, मोह एवं मिथ्यात्व दशा से ग्रस्त लोग अपने मन, इन्द्रियों तथा बुद्धि के वेग को दुःख की ओर ले जा रहे हैं। उनका यह वेग अधोमुखी है । इसे ऊर्ध्वमुखी बना दिया जाए तो वह वेग 'संवेग' हो सकता है। अर्थात्-वैषयिक सुखों की ओर दौड़ लगाना अधोमुखी वेग है, और मोक्ष सुख या आत्मिक सुख की ओर दौड़ लगाना ऊर्ध्वमुखी वेग है । संक्षेप में यों कह सकते हैं कि संसाराभिमुखी वेग अधोमुखी है और मोक्षभिमुखी वेग ऊर्ध्वमुखी है । यहाँ द्रव्य वेग की बात नहीं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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