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१७२ | सद्धा परम दुल्लहा किसी आध्यात्मिक विकास के कार्य में उनकी रुचि नहीं होती। ऐसे लोग संवेग से कोसों दूर होते हैं।
संवेग का स्वरूप
वेग शब्द विज् धातु से निष्पन्न होता है। जिसके दो अर्थ होते हैंकाँपना और दौड़ना-तीव्र गति करना। वेग के सामान्य रूप से दो रूप लौकिक व्यवहार में प्रचलित हैं-वेग और आवेग । वेग जहाँ दौड़ने अर्थ में है - वहाँ उसका अभिप्राय होता है-बैल, हाथी, घोड़ा, ऊँट आदि का वेग यानी दौड़ । जहाँ तीव्र गति अर्थ में है-वहाँ उसका अभिप्राय होता है -- भूख, प्यास, हंसना, रोना, मूत्र, मल, वीर्य आदि की तीव्र गति । मलमूत्रादि के आवेगों को रोकना आरोग्य के प्रतिकूल है। प्राकृतिक आवेगों यानी कुदरती हाजतों को बलात् रोकने से अनेक प्रकार के घातक रोग उत्पन्न हो जाते हैं । दूसरी दृष्टि से देखें तो आवेग आवेश अर्थ में भी प्रयुक्त होता है । कई बार मनुष्य आवेश में आकर कई उलटे-सीधे काम का लेता है । आवेश में मनुष्य को हिताहित का भान नहीं रहता। आवेशग्रस्त मनुष्य को एक धुन लग जाती है, वह उस कार्य को किये चले जाता है। वह यह नहीं सोचना कि इसमें मेरा या दूसरों का कोई अहित, अकल्याण या आत्मिक हानि तो नहीं है ?
आवेग के साथ कभी-कभी प्रतिवेग भी होता है। यौवन अवस्था में मनुष्य प्रायः आवेग के वश में होता है। आवेग में मनुष्य को भान नहीं रहता है कि वह जिन सांसारिक विषय सुखों की ओर दौड़ लगा रहा है, वे कितने भयंकर हैं, दुःखदायक हैं, सुखाभास हैं। इतना होते हुए भी वह परिणाम में दुःखोत्पादक उन विषय-भोगों को सुखरूप मानकर दौड़ लगाता रहता है । उसे आत्मा के हित का भान नहीं रहता। जब कोई किसी के उस आवेग को रोकता है तो प्रतिवेग उत्पन्न होता है। प्रतिवेग इष्टकर भी होता है, अनिष्टकर भी।
मांगीलाल सेठ का पुत्र गिरधर पूरा नास्तिक बना हुआ था । नवोढ़ा पत्नी के मोह में इतना आसक्त हो गया कि देव, गुरु, धर्म, किसी को भी नहीं मानता था। वह साधु को देखकर घर के द्वार बन्द कर लेता था, उन्हें देखकर मुंह फेर लेता था, किन्तु एक दिन घर का द्वार खुला था। एक जैन मुनि उसके यहाँ गोचरी के लिए पधारे। मुनि को देखकर गिरधर
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