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________________ सम्यग्दृष्टि को परखने का दूसरा चिन्ह ः संवेग जैन सिद्धान्त के अनुसार मोक्ष की ओर व्यक्ति की गति सम्यग्दर्शन या सम्यक्त्व से प्रारम्भ हो जाती है। किसी व्यक्ति की दष्टि सम्यक है या नहीं ? अर्थात् -उसका पराक्रम अन्तिम लक्ष्य को सम्यक् दिशा की ओर है या असम्यक दिशा की ओर है ? वह मोक्ष की ओर अपने कदम बढ़ा रहा है या संसार की ओर ? इसकी यथार्थ प्रतीति या परीक्षा के लिए जैन दर्शन में पांच लक्षण बताए हैं, उनमें दूसरा और तीसरा लक्षण है-संवेग और निर्वेद। मोक्षरूपी मंजिल तक पहुँचाने वाले आध्यात्मिक रथ के ये दो घोड़े हैं। संवेग : आध्यात्मिक विकास में अत्यन्त सहायक मनुष्य के पास सबसे महत्त्वपूर्ण पूँजी सद्गुणों की है । जिसके पास जितने अधिक सद्गुण हैं, वह उतना ही अधिक धनाढ्य है। उसके पास उतना ही अधिक आध्यात्मिक धन है । जैसे-भौतिक धन से उपभोग की सभी वस्तुएँ खरीदी जा सकती हैं, उसी प्रकार सद्गुणों के धन से आत्मा के ज्ञान, दर्शन, सुख और बल आदि निजी गुणसम्पदा अजित की जा सकती है, आध्यात्मिक उन्नति की जा सकती है। संवेग गुण आध्यात्मिक जीवन विकास में अत्यन्त सहायक तथा मोक्षमार्ग पर तीव्रता से गति करने में सहयोगी बनता है। जो गुणहीन और मोक्ष-लक्ष्य के प्रति उपेक्षाशील हैं, उनका चित्त आर्तध्यान में अहर्निश रत रहता है। ऐसे लोग हीन और हेय बने रहते हैं । वे जीवन जीने की कला से तथा जिंदगी सही ढंग से सम्यकदृष्टि पूर्वक जीने से अनभिज्ञ होते हैं । वे बेचारे जिन्दगी की लाश ढोते हुए जीते हैं। किसी प्रकार जिन्दगी के दिन पूरे कर लेना ही उनका लक्ष्य होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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