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________________ १७८ / सद्धा परम दुल्लहा धर्म में तथा उन धर्मों से प्राप्त होने वाले मोक्षरूप फल में होता है अथवा जो धर्मिष्ठ व्यक्ति हैं, उनके प्रति तीव्र गुणानुराग या पंचपरमेष्ठी के प्रति विशुद्ध प्रीति का होना संवेग है। निश्चयदृष्टि से तो सम्यग्दर्शनमय आत्मा ही धर्म है अथवा शुद्ध आत्मा का अनुभव होना धर्म है । शुद्ध आत्मा के अनुभव से जो अतीन्द्रिय, अक्षय और अव्याबाध, मोक्षरूप सुख उत्पन्न होता है, वही उस धर्म का फल है । धर्मिष्ठ पुरुषों में जो रत्नत्रयादि गुण हैं, उनके प्रति अनुराग ही मिष्ठ पुरुषों के प्रति अनुराग है । यही निश्चयदृष्टि से संवेग है । यह निश्चित है कि सम्यग्दृष्टि आत्मा के मन का वेग ऊर्ध्वमुखी-मोक्षलक्ष्यी होता है। परन्तु इस प्रकार के संवेग की वद्धि के लिए मोक्ष की ओर ले जाने वाले तीन तत्त्वों के प्रति निश्चल अनुराग का विधान भी अमितगति श्रावकाचार में किया गया है-- तथ्ये धर्मे ध्वस्तहिंसाप्रधाने, देवे राग-द्वेष-मोहादि मुक्त । साधौ सर्वप्रन्थसन्दर्भहीने. संवेगोऽसौ निचलोयोऽनुरागः ॥ अर्थात् --अहिंसा प्रधान सत्यधर्म पर; राग-द्वेष, मोह, आदि विकारों (दोषों) से रहित देव पर और सब प्रकार के परिग्रह (ग्रन्थ) से रहित साधु पर निश्चल अनुराग रखना संवेग है। आचार्यश्री ने संवेग के लक्षण में ही इसकी वृद्धि के लिए धर्मतत्त्व. देवतत्त्व और गुरुतत्त्व पर अटल अनुराग बढ़ाना अनिवार्य बताया है । क्योंकि मोक्ष की अभिलाषारूप संवेग इन तीनों तत्त्वों को अपने में समा लेने, जीवन में रमा लेने, इनमें तत्मय हो जाने या इन तीनों तत्त्वों के प्रति विशुद्ध अनुराग से ही पूर्ण हो सकता है। आचार्य समन्तभद्र ने धर्म का लक्षण बताया है 'यो धरत्युत्तमे सुखे जो उत्तम (सर्वोत्कृष्ट शाश्वत) सुख धारण करा देता है, वह रत्नत्रयरूप धर्म है। वस्तुतः उत्तम सुख का अर्थ मोक्षसुख ही है, उसे प्राप्त कराने वाला यही सद्धर्म है, तथा मोक्षसूख का स्वरूप बताने वाले तथा उसकी साधना करके प्रत्यक्ष बताने वाले देव एवं गुरु हैं। इन तीनों की आराधना साधना एवं उपासना से कर्मक्षय होकर भवभ्रमणजन्य या कर्मजन्य दुःखों का सर्वथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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