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________________ श्रमण संस्कृति का तृतीय मूलमन्त्र : सम | १६६ अर्थात् -- मन को विषमताओं के कारणभूत पदार्थों या व्यक्तियों से हटाकर समत्व में प्रतिष्ठित करना होता है । जिसका मन मान-अपमान आदि को बाह्यपदार्थ मानकर उनकी स्मृति होते ही चंचल और विक्षिप्त नहीं होता, वह समत्व में प्रतिष्ठित होता है । प्राणिगत वैषम्य से दूर सम्यग्दृष्टि में प्रत्येक प्राणी के प्रति समभाव होता है । वह ममता और आसक्ति से सर्वथा दूर रहने का प्रयत्न करता है, किन्तु किसी भी निर्दोष प्राणी को वह पीड़ित, दुःखित पा त्रस्त नहीं करता क्योंकि वह सभी प्राणियों को आत्मवतु मानता है । दूसरों के दुःख या पोड़ा को अपना दुःख या अपनी पीड़ा समझता है । उसका सदैव यही चिन्तन रहता है जह मम न पियं दुक्खं जाणिय एमेव सग्वजीवाणं । जिस प्रकार मुझे दुःख प्रिय नहीं है, उसी प्रकार समस्त प्राणियों को भी 'दुःख प्रिय नहीं है, ऐसा समझो। इसलिए मुझे किसी को भी दुःख नहीं देना चाहिए । इस प्रकार प्राणिमात्र के प्रति सम्यग्दृष्टि समभाव रखता है । वह अहंकारवश या ममत्ववश अपनी जाति, वर्ण, धर्म-सम्प्रदाय, देश, भाषा, प्रान्त, आदि को ऊँचा और दूसरों को नीचा समझकर उन्हें अपमानित या पीड़ित नहीं करता । मानवमात्र को वह अपने बन्धुतुल्य समझता है । मानवमानव में भेद करना, छूआ-छूत रखना, किसी के यहाँ जन्म लेने से ऊँच-नीच की कल्पना करना आदि अतात्त्विक बातों में वह विश्वास नहीं करता । वह जातिभेद, वर्णभेद, वर्गभेद आदि होने पर उन-उन जाति, वर्ण, वर्ग, भाषा, देश-वेश आदि लोगों के प्रति द्व ेष या मोह नहीं करता, क्योंकि वह मानता है कि ऐसा करना विषमता की वृद्धि करना है । इसीलिए उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है निमम्मो निरहंकारो, निस्संगो चत्तगारवो । समो य सव्वभूएस, तसेसु थावरेस य ॥ जिसने ममत्व, अहंकार, आसक्ति और गर्व का त्याग कर दिया है, और जो त्रस और स्थावर सभी प्राणियों के प्रति समभाव रखता है, वही सम्यग्दृष्टि है, समतायोगी है । १ उत्तराध्ययन अ० १६ गा० ८६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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