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१६८ ! सद्धा परम दुलहा
है । अनुकुल साधन न मिलने पर तिलमिलाता नहीं, और प्रतिकूल साधन मिलने पर तड़फता नहीं । इसी प्रकार अच्छे या बुरे, अनुकुल या प्रतिकुल पदार्थों या व्यक्तियों का संयोग मिलने पर वे समभाव से विचलित नहीं होते ।
प्रायः प्रतिकूल संयोगों में मनुष्य का मन समभाव को खो देता है । अतः सम्यग्दृष्टि बार-बार जागरूक और सावधान रहकर प्रभु से प्रार्थना करता है - "प्रभो ! मेरा मन संयोग और वियोग में सम रहे ।" अथवा अपने मन को वह बार-बार सम्बोधित करता रहता है-
" अरे मन ! तू क्यों इष्टवस्तुओं या व्यक्तियों के संयोग से हर्षावेश में उछलता और क्यों अनिष्ट वस्तुओं या व्यक्तियों के संयोग से दुःखितचिन्तित होता है ? दोनों ही परिस्थितियों में सम रह, राग और द्वेष से मोह और घृणा से दूर रह ।"
इस प्रकार सम्यग्दृष्टि सुख-दुःख, मान-अपमान, निन्दा - प्रशंसा, संयोगवियोग, भवन-वन, शत्रु-मित्र, शीत-उष्ण आदि द्वन्द्वों के समय मन में राग या द्वेष या मोह और घृणा को अपना कर विषमता नहीं लाता । वह इन द्वन्द्वों के समय समभाव रखता है । इसका अर्थ यह नहीं है कि समता रखने वाला व्यक्ति इन द्वन्द्वों के उपस्थित होने पर प्रवृत्तिशून्य हो जाए । समत्व आत्मिक या आन्तरिक पुरुषार्थ का नाम है। अतः साधक फलाकांक्षा से रहित होकर सम्यग्दर्शन - ज्ञान चारित्र तपरूप धर्म या मोक्षमार्ग में सतत पुरुषार्थ करता है । इस प्रकार के आन्तरिक पुरुषार्थ द्वारा कर्मक्षय करके आत्मशुद्धि करते समय कदाचित् वह बाह्य प्रवृत्तियों से कुछ समय के लिए निवृत्त होता है । परन्तु जब तक शरीर है, तब तक मन वचन काया से एकान्त निवृत्ति न तो सम्भव है, और न ही अभीष्ट । कुछ शारीरिक क्रियाएँ तो अनिवार्य होती हैं, लेकिन उन क्रियाओं को करते समय भी सम्यग्दृष्टि समभावी यतना और विवेक रखता है ।
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मन भी तभी चंचल एक विक्षिप्त होता है, जहाँ इन्द्रिय, मन और प्राण (वायु) में विषमता हो । इनमें समता आते ही विक्षेप का स्वतः शमन हो जाता है । मन को समत्व में प्रतिष्ठित करने या एकाग्र करने का माध्यम समताल श्वास-प्रश्वास है । उसे अजपाजाप या आनापानसती भी कहते हैं ।
मन चिन्तन से सर्वथा विमुक्त नहीं हो सकता । असत् कल्पनाओं के जाल से मुक्त करने के लिए उसे सत्कल्पनाओं का सहारा लेना आवश्यक है ।
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