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________________ श्रमण संस्कृति का तृतीय मूलमन्त्र : सम | १६७ अति उपयोग करके जीवन को बर्बाद कर देता है । इस प्रकार इष्ट या अनिष्ट शब्दादि विषयों के संयोग अथवा वियोग के समय वह मन को सन्तुलित नहीं रख सकता । समभाव में रहने का कौशल उसे प्राप्त नहीं हुआ । कई समभाव की कला से अनभिज्ञ व्यक्ति शब्दादि विषयों का उपभोग अपनी इन्द्रियों से न कर सकने या आँख, कान, हाथ, पैर, वाणी आदि बाह्य इन्द्रियाँ न मिलने पर बहुत चिन्तित रहते हैं और सोचते रहते हैं कि हमें आँखें मिलती तो हम अच्छा ही अच्छा देखते अथवा हमें पैर मिलते तो हम दौड़ दौड़ कर असहायों एवं रुग्णों की सहायता करते, सेवा करते । अथवा हम शारीरिक दृष्टि से निर्बल न होते अपितु सबल होते तो दुर्बलों एवं पीड़ितों पर कभी अत्याचार या अन्याय न होने देते । परन्तु जव उन्हें वे इन्द्रियाँ अच्छे रूप में प्राप्त हो गईं तो वे उनके सदुपयोग से अथवा अपने मन में संजोई हुई सेवा की कल्पना से विमुख हो गए और उन उन अंगों या इन्द्रियों का दुष्प्रयोग करने लगे । वे अपने सुसंकल्प को भूल गए । विविध द्वन्द्वों में समत्व इसी प्रकार लाभ और अलाभ, निन्दा और प्रशंसा, जीवन या मरण अथवा अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों अथवा सम्मान और अपमान के प्रसंगों पर साधारण अज्ञजन संतुलित, स्वस्थ या समत्व में स्थिर नहीं रह सकते, जबकि सम्यग्दृष्टि ऐसे द्वन्द्वों के अवसर पर सम रहता है । उत्तराध्ययन सूत्र में समभावी की इसी दृष्टि का स्वरूप बताते हुए कहा गया है लाभालाभे सुहे दुक्खे जोविए मरणे तहा । समो णिदा पसंसासु तहा माणाव माणओ ॥ सम्यग्दृष्टि समभावी पुरुष लाभ और अलाभ में, सुख और दुःख में जीवित या मरण में, तथा निन्दा और प्रशंसा के अवसरों पर एवं सम्मान या अपमान की स्थिति में सम रहता है । ऐसे समभावी को जीने के लिए आवश्यक और उपयुक्त साधन मिलें या न मिलें, अथवा प्रतिकूल साधन मिलें वह सन्तुलित और स्वस्थ रहता १ उत्तराध्ययन अ. १६, गाः ६० Jain Education International ---- For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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