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________________ १६६ / सद्धा परम दुल्लहा सुख और दुःख में समत्व सम्यग्दृष्टि भेदविज्ञान द्वारा शरीर और आत्मा की भिन्नता को समझ कर शरीर से सम्बन्धित सुख और दुःख आदि द्वन्द्वों के समय समभाव रखता है। सांसारिक अज्ञजन अनुकूल विषय-सुखों के प्राप्त होने पर हर्ष से फूल उठते हैं, अपने मन को अभीष्ट लगने वाली वस्तु या अनुकूल परिस्थिति को सुखरूप मान कर अहंकार से गवित हो उठते हैं। वहाँ सम्यग्दृष्टि समभावी होकर वैषयिक सुखों को दुःख बीज मानकर उनके फंदे में नहीं फंसता, अनुकूल परिस्थितिजन्य तथा वस्तूनिष्ठ सूखों को भी क्षणिक, रागद्वषवर्द्धक एवं वियोगादि में दुःखोत्पादक मान कर उनमें आसक्त नहीं होता। कदाचित् पूर्वकृत पुण्यफल के कारण उसे स्वस्थ शरीर, तेजस्वी बुद्धि, सशक्त मन, अपार वैभव, दीर्घायुष्य, अनुकूल परिवार आदि सुख के साधन प्राप्त हो जाएँ तो भी वह उनमें आसक्त या मोहग्रस्त नहीं होता, अहंकार नहीं करता। वह उन साधनों को राग-द्वेष, काम क्रोधादि विकारों को बढ़ाने में नहीं लगाता । सम्यकदृष्टि भी सुख चाहता है, पर उसकी दृष्टि असली, स्थायी और शाश्वत सुख पर रहती है, वह वैषयिक सुखों या परिस्थितिजन्य या वस्तुनिष्ठ सुखों की लालसा नहीं करता। इनका गुलाम नहीं बनता। संयोग और वियोग में समत्व __इष्ट का वियोग हो चाहे अनिष्ट का संयोग, समभाबी सम्यग्दृष्टि दोनों ही परिस्थितियों में सम रहते हैं । वे न तो इष्ट वस्तु या व्यक्ति के बियोग होने पर घबराते हैं, और न ही अनिष्ट वस्तु या व्यक्ति का संयोग होने पर चिन्तित होते हैं। इसी प्रकार इष्ट वस्तु या व्यक्ति के संयोग अथवा अनिष्ट के वियोग के समय भी वे हर्षित होकर उछलते नहीं, न ही उनमें गाढ़ आसक्त, मूच्छित या लालायित होते हैं। एक व्यक्ति धनवान् है, परन्तु उसका शरीर दुर्बल है, रोगाक्रान्त है, काला कलुट है। उसको अंगोपांग भी सूडौल नहों मिले। उसके मन और बुद्धि भी विकसित नहीं हैं । पाँचों इन्द्रियाँ तो मिलीं, पर वे बहुत ही चंचल हैं, अनुकूल विषयों पर राग-मोह या आसक्ति से ग्रस्त हो जाती हैं, और प्रतिकूल विषय मिलने पर उसका मन उन्हीं इन्द्रियों को कोसता रहता है, वह शोक एवं चिन्ता में डूब जाता है । अथवा समभाव के महत्व से अनभिज्ञ व्यक्ति या तो इन्द्रियों का दुरुपयोग करता है। अथवा इन्द्रियों का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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