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श्रमण संस्कृति का तृतीय मूलमन्त्र : सम' | १६५
आदि के परिकर भी शरीर से सम्बन्धित हैं; जो शरीर यात्रा की परिधि में आते हैं । शरीरासक्त मानव आध्यात्मिक वैषम्य के जाल में फंस कर अपने माने हुए परिवार. सम्प्रदाय, कौम, जाति-प्रान्त आदि के लिए लड़ता-मरता है, अपने प्राण होमने को तैयार हो जाता है । न्यायसंगत बात के लिए नहीं, किन्तु अन्याय-अनीति-युक्त या मिथ्या परम्परागत बात के लिए भी, अपने अहंत्व-ममत्व के पोषण के लिए भी तथा अपनी झूठी शान-शौकत, कुरूढ़ि एवं कुरीति एवं मिथ्या प्रतिष्ठा आदि के लिए अथवा अपनी मूंछे ऊँची रखने के लिए भी। इसके अतिरिक्त धन, धाम, घर-बार, जमीनजायदाद, मकान-दुकान, वस्त्राभूषण आदि भी शरीर से ही सम्बन्धित हैं, जिनके लिए शरीरवादी मानव आजीवन दौड़-धूप, करता रहता है । निष्कर्ष यह है कि शरीर को आत्मा से अभिन्न मानने वाले लोग शरीर और शरीर-सम्बद्ध वस्तुओं की ही सेवा शुश्र षा में अपना समग्र जीवन लगा देता है । शरीर और शरीर से सम्बन्धित वस्तुओं, व्यक्तियों तथा तन, मन, वचन आदि के साथ जो तादात्म्य-सम्बन्ध है, उसी को वैषम्य का, रागद्वेष-मोह आदि का कारण समझ कर सम्यग्दृष्टि भेदविज्ञानी बन जाता है, और उस तादात्म्य सम्बन्ध को शिथिल करने तथा उससे मुक्त होने का प्रयास करता है । वह समत्व में स्थिर होकर आत्मिक सुख-शान्ति प्राप्त कर लेता है।
___समभाव निष्णात सम्यग्दृष्टि शरीर और शरीर से संलग्न इन्द्रिय, मन, वाणी आदि को अपने (आत्मा के) सेवक मानता है। वह शरीरादि के साथ व्यवहार में स्वामी-सेवक का या शिल्पो-उपकरण का-सा सम्बन्ध मानकर इन्हें समत्व-साधना में लगाता है, इन्हें आत्मा की सेवा में, आत्मगुणों की वृद्धि में, आत्मशुद्धि, आत्मचिन्तन और आत्म-विकास की साधना में लगाता है। वह शरीरादि उपकरणों को सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की साधना में जुटाता है। सम्यग्दृष्टि का लक्ष्य शरीर और आत्मा का सन्तुलन बनाए रखना है । वह आत्मा की शक्ति बढ़ाकर शरीरादि को अपने अनुकूल बनाता है। वह पूर्वोक्त आध्यात्मिक वैषम्यों को जरा भी फटकने नहीं देता। अनुयोगद्वार सूत्र में स्पष्ट कहा है
जस्स सामाणिओ अप्पा, संजमे नियमे तवे ।
तस्स सामाइयं होइ, इइ केवली भासियं ॥ अर्थात्-जिसकी आत्मा समभाव में रहती है, अर्थात् संयम-नियम और तप में प्रवृत्त होती है, वीतराग प्रभु ने उसी के समत्व योग (सामायिक) को श्रेष्ठ कहा है ।
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