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सम्यक् श्रद्धा : एक चिन्तन | १३ वत्स ! तेरे जीवन में इतनी उदासी और खिन्नता क्यों ? साधु जीवन तो निश्चिन्तता, शान्ति और मस्ती का जीवन होता है । तु अपना कूटम्बपरिवार, घरबार, धनसम्पति आदि सब कुछ छोड़कर निर्ग्रन्थ मुनिधर्म में प्रवजित हुआ है । संयम साधना का पवित्र पथ तूने अंगीकार किया है । इस जीवन में खिन्नता कौर उदासी कैसी? क्या किसी साथी साधु ने तुझे कुछ कह दिया है, या मेरे निमित्त से तेरे हृदय को कोई चोट लगी है ?
शिष्य ने कहा- "गुरुवर ! आपके चरणों में मुझे किसी प्रकार का दुःख नहीं है, न ही आपसे या मेरे किसी साथी साधु से मुझे कोई शिकायत है । आपकी परम कृपा दृष्टि एवं मेरे गुरु भ्राता मुनियों का वात्सल्य मेरे जीवन में परम गौरव का विषय है। आपका यह कथन भी सत्य है कि मुझे साधु जीवन में प्रसन्न और निश्चिन्त रहना चाहिए, किन्तु गुरुदेव ! क्या करू ? मेरी अपनी मन्दबुद्धि के कारण कोई भी शास्त्रीय ज्ञान स्मृतिपट पर टिक नहीं पाता। मैं शास्त्रों का ठोस और विस्तृत अध्ययन नहीं कर पाता, यही खेद है । आप कोई संक्षिप्त सूत्र दीजिए, जिससे थोड़े-से में में अधिक आत्म ज्ञान प्राप्त कर सकू।"
कृपालु गुरुदेव ने कहा- वत्स ! खेद मत कर ! तुझे मैं एक छोटासा सूत्र बताता हूँ, उसे तू याद कर लेगा तो तुझे समस्त शास्त्रों में प्रतिपादित अध्यात्म तत्व का सार ज्ञात हो जाएगा। यह कहकर गुरुदेव ने उस मन्दबुद्धि शिष्य को यह सूत्र रटने को दिया-'मा रुष, मा तुष अर्थात्-न तो किसी के प्रति द्वष-रोष करो और न ही राग । साधना का सार समत्व है।
यद्यपि गुरु ने उस शिष्य को मन्दबुद्धि जानकर ही यह छोटा-सा सूत्र दिया था, किन्तु वह बेचारा इतना मन्दबुद्धि था, उसका ज्ञान पूर्वजन्मार्जित ज्ञानावरणीय कर्म के कारण आवृत था, अतः वह छोटा-सा सूत्र भी याद न रहा और वह 'मा रुष, मा तुष' के बदले रटने लगा-'माषतुष' जिसका अर्थ होता है-उड़द का छिलका । परन्तु उसे गुरु के प्रति,अपने धर्म एवं उस सूत्र के प्रति अगाध श्रद्धा थी । वीतराग देव एवं अपनी आत्मा के प्रति उसके हृदय में कूट-कूट कर श्रद्धा भरी थी। अतः वह इस सूत्र को गलत रूप में भी देव-गुरु-धर्म का प्रसाद समझ कर रटता रहा। वह अपनी आत्मा, गरु एवं गुरुवचनों पर पूर्ण श्रद्धा से उस सत्र को ज्यों-ज्यों रटता
जाता था, त्यों-त्यों उसके मन-मस्तिक में उसका अर्थ स्पष्ट होता रहा। . उस मन्द बुद्धिशिष्य का आत्मविश्वास दृढ़ हो गया, आत्मा में निहि।
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