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१२ | सद्धा परम दुल्लहा
(उपसर्ग) उपस्थित होने पर भी उन्होंने केवल आत्मतत्व पर ही दृष्टि, 'श्रद्धा और निष्ठा रखी, आत्मा से पर शरीर या उपसर्गकर्ता आदि किसी के प्रति द्वष, रोष, राग, मोह या ममत्व नहीं किया। वे इसी शुद्ध आत्मनिष्ठ सम्यक श्रद्धा के कारण समभाव में स्थिर रहे, आत्म-भावों में ही अन्त तक रमण करते रहे, इस प्रकार समस्त कर्म-बन्धनों को तोड़कर वे सिद्ध-बुद्ध मुक्त हो गये । अतः सम्यक श्रद्धा सम्पन्न मुमुक्ष में शुद्ध आत्मा और उसके निश्चित स्वरूप के प्रति श्रद्धा कूट-कूटकर भरी होती है । ऐसी सम्यक श्रद्धा जितनी-जितनी सुदृढ़ होती है, उतनी ही उतनी समर्पणवृत्ति एवं व्युत्सर्ग भावना व्यक्ति में बढ़ती जाती है। ऐसी सम्यक श्रद्धा साधक के जीवन में पूर्वोपार्जित ज्ञान एवं चारित्र को सम्यक् बना देती है । मुमुक्ष जीवन को आध्यात्मिक क्रान्ति करने में सम्यक् श्रद्धा पथ-प्रदर्शक बनती
शुद्ध आत्मलक्ष्यी सम्यक्श्रद्धा का परिणाम
जिसमें ऐसी शुद्धात्मलक्ष्मी सम्यक् श्रद्धा की ज्योति जग उठती है, उस व्यक्ति के ज्ञान-दर्शन पर आई हुई चंचलता, मलिनता और अदृढ़ता (शिथिलता) अथवा अविश्वास, संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय (अनिश्चय) आदि दोष दूर हो जाते हैं, उसे उत्कृष्ट आत्मलक्ष्यी श्रद्धा के फलस्वरूप केवलज्ञान का महाप्रकाश भी प्राप्त हो जाता है। साक्षी के रूप में प्रस्तुत है जैन इतिहास का इससे सम्बन्धित ज्वलन्त उदाहरण
एक महान आचार्य के पास उसने मुनिदीक्षा तो बहत ही वैराग्यभाव से ली थी, अपने घरबार, सम्पन्न परिवार और धनसम्पत्ति आदि का त्याग करके उसने संयम का आग्नेयपथ स्वीकार किया था। नाम तो उसका कुछ और ही था, परन्तु वह जैनजगत में माष-तुषमुनि के नाम से प्रसिद्ध हो गया।
___ गुरुदेव उसे शास्त्रों को वाचना देते, सैद्धान्तिक तत्व समझाते और आध्यात्मिक तत्व ज्ञान देने का पूरा प्रयत्न करते, पर बुद्धिमन्दता के कारण उसे कुछ भी समझ में नहीं आता था। वह अपनी मन्दबुद्धि पर खेद भी प्रकट करता था । गुरु की भक्ति और विनय में कोई कसर नहीं रखता था, फिर भी बुद्धिमन्दता के कारण वह शास्त्राध्ययन एवं चिन्तन नहीं कर सकता था। इस कारण उदास और खिन्न रहने लगा।
एक दिन गुरुदेव ने उसकी खिन्नता और उदासी का कारण पूछा
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