________________
सम्यक् श्रद्धा : एक चिन्तन | ११
कर या ऊबकर छोड़ देता है, श्रद्धा उन कार्यों को सफलतापूर्वक पूर्ण करने में उसे सहयोग देती है । लोक व्यवहार में भी विश्वासपूर्वक जब मनुष्य किसी कारोबार में, धन्धे या कल-कारखाने में जुट जाता है, तब वह प्रायः उसमें सफल होता देखा जाता है । क्या इस प्रकार की या ऐसी ही अन्य स्वार्थसिद्धकरी श्रद्धा को सम्यक् श्रद्धा नहीं कहा जायेगा ? जैनदर्शन इसे सम्यक् श्रद्धा मानने से इन्कार करता है । क्योंकि इस प्रकार की श्रद्धा
for या भौतिक श्रद्धा है, ऐसी श्रद्धाओं से मोक्षलक्ष्य की ओर गतिप्रगति नहीं हो सकती । यद्यपि यह अन्धश्रद्धा, मिथ्या श्रद्धा, कुश्रद्धा नहीं है, फिर भी यह आत्मलक्ष्यी या मोक्षलक्ष्यी श्रद्धा नहीं है । यह संसार - लक्ष्यी श्रद्धा है । शास्त्रीय भाषा में कहें तो जब तक मिथ्यात्वमोहनीयकर्म के क्षय, उपशम या क्षयोपशम से उत्पन्न जीव के शुद्ध आत्मलक्ष्यी या मोक्षलक्ष्यी परिणाम नहीं होते, तब तक उसकी श्रद्धा सम्यक् श्रद्धा नहीं हो सकती । फिर ऐसी कोरी भौतिक श्रद्धा से व्यक्ति विपरीत मार्ग पर भी जा सकता है। भौतिकवादी या हिंसाजनक कुकृत्यों पर श्रद्धा रखने वाला व्यक्ति अथवा पशुबलि आदि किसी हिंसक प्रथा के प्रति अन्धश्रद्धालु भी बहुधा अपने उद्देश्य में बाहर से सफल होता दृष्टिगोचर होता है । फिर भले ही वह सफलता लौकिक हो, संसार परिभ्रमण के मार्ग पर ले जाने वाली हो । यही कारण है कि श्रद्धा जब शुद्ध आत्मलक्ष्यी या मोक्षलक्ष्यी होती है, तब उसके पूर्व 'सम्यक्' शब्द जोड़ा जाता है ।
सम्यक् श्रद्धा का अर्थ वह श्रद्धा है, जो व्यवहार में जिनोक्त तत्वों अथवा देवाधिदेव, सद्गुरु एवं सद्धर्म के प्रति हो, किन्तु निश्चय में वह शुद्ध आत्मलक्ष्यी हो या मोक्षलक्ष्यी हो । आत्मलक्ष्यी श्रद्धा तब होती है, जब अनन्तानुबन्धी चार कषाय एवं दर्शनमोहनीय की तीन, यों सात कर्म प्रकृतियों का क्षय, उपशम या क्षयोपशम हो गया हो । आत्मलक्ष्यी सुश्रद्धा का धनी व्यक्ति आत्मा और उसकी अनन्त ज्ञानादि शक्तियों के प्रति दृढ़विश्वासी होता है । सम्यक् श्रद्धा भयंकर तूफानों और प्रलयंकर संकटों के समय भी विचलित नहीं होती । आत्मलक्ष्यी सुश्रद्धा जब साधक जीवन को स्पर्श करती है, तब उसके ज्ञान पर आई हुई अज्ञान, मिथ्यात्व, अन्धविश्वास, अविश्वास, मोह आदि की मलिनता या तमिस्रा को दूर कर देती है । सम्यक् श्रद्धा व्यक्ति को आत्म-निर्भर, आत्मनिष्ठ एवं आत्मबली बनाती है । यह आत्मनिष्ठ सम्यक् श्रद्धा का ही प्रकाश था कि महाकाल श्मशान में कायोत्सर्गस्थ महामुनि गजसुकुमार पर भयंकर मरणान्तक कष्ट
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org