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श्रमण संकृति का तृतीय मूलमंत्र : सभ | १६१
सकता है। जब तक स्वयं के जीवन में विविध विषमताएँ रहेंगी, तब तक स्वयं का जीवन भी अशान्त, विषम और व्याकुल... व्यग्र रहेगा; तथा मोक्ष मार्ग के बदले वह जन्म-मरणरूप संसार के मार्ग की ओर ही द्र तगति से बढ़ता जाएगा। इसीलिए कहा गया है ----
'सममाव-माविअप्पा लाहइ मुक्खं न सन्देहो ।
"समभाव से भावित-ओतप्रोत आत्मा निःसंदेह मोक्ष प्राप्त करता है।"
विषमताओं से भरा संसार . अतः सर्वप्रथम हमें यह देखना है कि विषमताएँ कहाँ-कहाँ और कैसी होती हैं तथा सम्यग्दष्टि उनसे कैसे दूर रहकर अपने जीवन में समत्व को प्रतिष्ठित करता है ?
यह जगत् समसूत्र पर स्थिर नहीं है । इसमें अनेक प्रकार की विषमताएँ हैं । कहीं परिवार में विषमता है, कहीं समाज में उच्च-नीच, हरिजनपरिजन, छूत-अछूत, आदि विषमताएँ हैं, कहीं परिस्थितिजन्य विषमताएँ हैं, कहीं क्षेत्रीय विषमता है तो कहीं बौद्धिक और आत्मिक विषमता है, कहीं धर्मसम्प्रदायगत विषमता है तो कहीं अन्य विषमताएँ हैं। सम्यग्दष्टि मानव इन सब विषमताओं से भरे संसार के बीच रहता हुआ विषमता के कारणों को जानकर समभाव में स्थिर रहता है, इन विषमताओं के प्रवाह में नहीं बहता।
आध्यात्मिक वैषम्य में समत्वरक्षा सर्वप्रथम हम आध्यात्मिक वैषम्य को लें। मनुष्य केवल शरीर ही नहीं है । वह शरीर और आत्मा दोनों के संयोग को लेकर जीता है । मिथ्यादृष्टि जीव आत्मा और आत्मभाव को भूलकर शरीर और शरीर से सम्बन्धित सजीव-निर्जीव पदार्थों के प्रति मोह, ममत्व, राग तथा वृणा द्वेष, वैर. विरोध, ईर्ष्या आदि से ग्रस्त होकर नाना प्रकार से अशुभ कर्मों को बाँध लेता है । इस प्रकार जहाँ उसे कर्मों के वश न होकर आत्मा से युक्त मानव शरीर के प्रति भेद-विज्ञानपूर्वक आध्यात्मिक वैषम्य को मिटाना था, शरीर और शरीर से सम्बद्ध पदार्थों के प्रति राग-द्वेष करके वहाँ वह ससार मार्ग का परिपोषण करता है । कहा भी है
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