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१६२ | सदा परम दुल्लहा
येनैव देहेन विवेकभाजः संसारमार्ग परिशोषयन्ति । तेनैव देहेन विवेकहीनाः संसारमार्ग परिपोषयन्ति ॥
जिस शरीर से विवेकवान् सम्यग्दृष्टि संसार का परिशोषण करता है, उसी शरीर से विवेक-विकल मानव संसारमार्ग को परिपुष्ट करता है।
जब तक आत्मा और शरीर को पृथक-पृथक नहीं समझा जाता, तब तक जीव के अत्यन्त निकट और प्रत्यक्ष होने के कारण शरीर और शरीर से सम्बद्ध सजीव वस्तुओं के प्रति मोह-ममत्व जागेगा, आसक्ति और मूर्छा उत्पन्न होगी। उन्हीं को लेकर हिंसा, असत्य, चोरी, ठगी, बेर्हमानी, अन्याय, अनीति, अब्रह्मचर्य-व्यभिचार, दुराचार, संग्रहवत्ति, परिग्रहबुद्धि आदि पाप दोषों की वृद्धि होती रहेगी। यह आध्यात्मिक विषमता है। राग-द्वेष आदि उक्त विषमता के अवसर प्रमादी व्यक्ति को भयंकर कर्मबन्ध में डाल देते हैं। सम्यग्दष्टि विवेकी साधक ऐसे विषमता के अवसरों पर इष्ट का वियोग हो जाने पर मोहजनित विलाप, शोक, चिन्ता, आर्तध्यान आदि से तथा इष्ट के संयोग के प्रति राग, हर्षावेश, आसक्ति या मोह आदि से दूर रहने का और अनिष्ट संयोग के प्रति द्वष, घृणा, ईर्ष्या, दुःखजनित तड़फन वैर-विरोध आदि से तथा अनिष्ट के वियोग में हर्षावेश आदि से अपने आपको बचाने का अभ्यास करता है । अर्थात् वह ऐसे समय में आत्मा को इन सब परभावों से पृथक समझता है, आत्मा के स्वभाव-निजीगुणों का चिन्तन करता है, यही आध्यात्मिक साम्य है, जिसमें स्थिर रहने का वह अभ्यास करता है । शरीर से आत्मा को सम्यग्दृष्टि आत्मा पृथक् समझता है । वह शरीर और शरीर से सम्बन्धित अंगोपांग, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि तथा अपने माने हुए परिवार, समाज, सम्प्रदाय, जाति, कौम आदि सजीव एवं धन-सम्पत्ति, जमीन, जायदाद, बाग-बगीचा, कार, कोठी, आदि समस्त निर्जीव वस्तुओं के प्रति लगाव, आसक्ति, मोह-ममता, तृष्णा, लालसा आदि को परभाव समझ कर उनसे निर्लिप्त रहने का अभ्यास करता है। शरीर और शरीर से सम्बद्ध सजीव पदार्थों को अनुचित इच्छाओं, आकांक्षाओं तथा अनुचित आवश्यकताओं को पूर्ति करने में समय, शक्ति और धन आदि साधनों का जो अपव्यय किया जाता है, समभावनिष्ठ व्यक्ति उसे छोड़ने का अभ्यास करता है । वह भलो भांति जानता है कि शरीर को नष्ट कर देना या उसके अंगोपांगों को तोड़-फोड़ देना शरीर से आत्मा का भेदविज्ञान नहीं है, अपितु शरीर और शरीर से सम्बन्धित सजीव-निर्जीव वस्तुओं को
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