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सम्यग्दृष्टि की परख के प्रथम चिह्न के सन्दर्भ मेंश्रमण संस्कृति का तृतीय मूलमन्त्र : सम
सम: तीसरा मूलमंत्र
श्रमण संस्कृति का तीसरा मूलमंत्र 'सम' है, जो 'समण' के संस्कृत रूपान्तर 'समन' से प्रतिफलित हुआ है । 'सम' भी व्यावहारिक सम्यग्दर्शन ( सम्यक्त्व) का एक लक्षण है । किसी व्यक्ति में सम्यग्दर्शन है या नहीं ? इसकी पहचान के लिए उसमें 'समत्व' का विचार और आचार देखना आवश्यक है ।
'सम' को तीसरा मूलमंत्र और सम्यग्दर्शन का प्रथम लक्षण इसलिए माना गया है कि 'सम' के बिना सम्यग्दृष्टि का जीवन अनेक विषमताओं से घिरा रहेगा । मानसिक संताप, और संक्लेश में उसका मन घुटता रहेगा अतः सम्यग्दृष्टि के जीवन में समत्व का ओतप्रोत रहना अनिवार्य है । समभाव के बिना सर्वत्र अशान्ति और व्याकुलतः
समभाव के बिना व्यक्ति न तो आध्यात्मिक शान्ति प्राप्त कर सकता है और न ही मानसिक शान्ति । इसी प्रकार सामाजिक, पारिवारिक, राजनैतिक, धार्मिक, साम्प्रदायिक, दार्शनिक एवं राष्ट्रीय आदि क्षेत्रों में भी वैषम्य होने पर मनुष्य का समत्व में स्थिर रह पाना अशक्य हो जाता है । ऐसे समय में सम्यग्दृष्टि साधक समत्वयोग का अवलम्बन लेकर इन सभी क्षेत्रों में शान्ति और समता का प्रचार-प्रसार कर सकता है । और अपने जीवन में भी कर्मक्षय करता हुआ मोक्षमार्ग की ओर तीव्रगति से गमन कर
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