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१५४ | सद्धा परम दुल्लहा
और सहिष्णुता का जिसमें नामोनिशान नहीं है, ऐसे व्यक्ति में शम गुण नहीं होने से उसे सम्यग्दृष्टि नहीं माना जा सकता।
जिसके जीवन में शमगुण प्रगट होता है, वह किसी को कटु वचन बोले जाने पर या किसी बात पर तकरार होने पर तुरंत उस व्यक्ति से क्षमा मांगता है। कल्पसूत्र में स्पष्ट बताया है-किसी बात पर किसी से परस्पर विवाद खड़ा हो जाय, दूसरे को चुभने वाले वचन बोले जायँ या कलह हो जाए तो जो क्षमा मांग लेता है, वही आराधक होता है । जो क्षमा नहीं मांग कर वैर-विरोध या कलह को दीर्घकाल तक रखता है, क्षमायाचना नहीं करता, वह विराधक है । क्योंकि कहा है
उवसमसारं खु सामण्णं श्रमणसंस्कृति का सार उपशम है।
वैर-विरोध और कदाग्रह जिस व्यक्ति के मन में टिकते नहीं, क्रोध का उदय होते ही, उदीयमान क्रोध को जो वापस मोड़ लेता है। वर्तमान में प्रवर्तमान कषाय की परिणति को वापस खींच लेता है, वही शमगुण का -शान्ति का आराधक है । जहाँ वैर-विरोध नहीं होगा, क्रोध, कदाग्रह, ईर्ष्या, दुष्टवृत्ति, मात्सर्य आदि गाँठ खुल जाती है, अपना बुरा करने वाले के प्रति भी मन में प्रेमभाव हो, वहाँ अहर्निश शान्ति अठखेलियाँ करती है । उपाध्याय यशोविजयजी उपशम का अर्थ करते हुए कहते हैं -
'अपराधीशु पण नवि चित्त थकी, चिन्तविए प्रतिकूल' भावार्थ यह है कि जिसे सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो गई हो, उस व्यक्ति के अन्तर् में किसी भी प्राणी के प्रति वैरविरोध की भावना उत्पन्न नहीं होती। कदाचित कभी किसी अपराधी को दण्ड भी देना पड़े तो भी वह उसके प्रति कोई राग-द्वेषपूर्ण पक्षपात या शत्रत्व की भावना नहीं रखेगा । इस जगत् में कषाय के असंख्य स्थान हैं, तथा इन्द्रियविषय-भोगों के भी असंख्य स्थान हैं । सम्यग्दृष्टि के मन में विषय-कषायों के असंख्य स्थानों के प्रति मन्दता आ जाना, अर्थात्-उपशान्ति हो जाना शम है, इस प्रकार को परिभाषा भी एक आचार्य ने की है। शम या शान्ति के प्रमुख बाधक कारण
तीव्र क्रोध-कषायों में सबसे पहले क्रोध आता है । क्रोध कषाय शान्ति या शम का प्रत्यक्ष शत्रु है। जब तीव्र क्रोध आता है तो आँखें लाल
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