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________________ 'शम' का द्वितीय रूप-- शम | १५५ हो जाती हैं, चेहरा भी तमतमा जाता है । क्रोधी मनुष्य अपना भान भूल जाता है। उसकी बुद्धि उस समय विवेक-विचार से रहित हो जाती है। क्रोध आने पर आदमी यह नहीं देख पाता कि सामने कौन खड़ा है ? मैं किसके साथ बकवास कर रहा हैं ? वह अपने बुजुर्गों एवं पूज्य व्यक्तियों के प्रति सम्मान एवं विनय को ताक में रख देता है। हजारों वर्षों का तप आचरण किया हुआ संयम, क्रोधी व्यक्ति एक बार के क्रोध में भस्म कर देता है। क्रोधी व्यक्ति की व्रत-नियमों की सब साधना व्यर्थ जाती है। क्रोधी व्यक्ति से कोई मित्रता, प्रेम नहीं करता, कोई उसके प्रति स्नेह-सहानुभूति नहीं बताता। क्रोधी व्यक्ति में क्रोध के साथ ईर्ष्या, मात्सर्य, द्वेष, घृणा, वैर, आदि दुर्गुण भी शीघ्र प्रविष्ट हो जाते हैं। वह हिताहित का विचार भी नहीं कर पाता । क्रोधी व्यक्ति के साथ भाई बन्धुओं एवं स्नेही जनों की मित्रता टूट जाती है । बल्कि कई बार मित्रता शत्रुता में परिणत हो जाती है । क्रोधावेश में आकर व्यक्ति वैरपरम्परा को बढ़ा लेता है। क्योंकि उस समय क्रोधी व्यक्ति आपे से बाहर होकर गालियाँ बकने लगता है, अपशब्द कह देता है, कई बार मर्मस्पर्शी और चुभने वाले कटु शब्द कह बैठता है, जिनका घाव शीघ्र भरता नहीं है । क्रोधावेश में व्यक्ति कई बार दूसरों पर मिथ्यादोषारोपण कर देता है। इसी कारण क्रोध शमगुण का प्रत्यक्ष विरोधी है। कोध करने से घोर पाप कर्मों का बन्ध होता है जिनका फल बहुत ही कटु होता है । अतः तीव्र क्रोध जब तक शान्त नहीं हो, तब तक शमगुण की प्राप्ति नहीं हो सकती और शमगुण के अभाव में किसी व्यक्ति को सम्यग्दृष्टि नहीं कहा जा सकता, चाहे वह कितना ही शिक्षित, शास्त्रज्ञ, प्रवचनपटु, व्याख्याता या दार्शनिक आदि हो। अहंकार-ममकार की तीव्रता -ये दोनों मान कषाय एवं राग के भाई-बन्धु हैं । प्राणी की भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार की उन्नति में अहंकार और ममकार सर्वाधिक बाधक हैं । _ 'पापमूल अभिमान' यह कहावत अक्षरशः सत्य है। अहंकार अनेक पापों और दुर्गुणों का मूल है, जनक है । अहंकारी व्यक्ति दूसरों का उत्कर्ष देख नहीं सकता । अहंकार एक प्रकार का मद्य है, जो मनुष्य को उन्मत्त जैसा बना देता है । मद्य पीने के बाद नशा चढ़ता है, जो कुछ घंटों बाद उतर जाता है किन्तु अहंकार रूपी मद्य का नशा तो काफी असे तक रहता है । अहंकार से मनुष्य की सद्बुद्धि लुप्त हो जाती है, वह अच्छे-बुरे या हिताहित का विचार नहीं कर पाता । अहंकार के आवेश में वह कई बार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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