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________________ 'शम' का द्वितीय रूप ---शम | १५३ पूर्वाग्रह, वैर-विरोध, अथवा कलह-क्लेश आदि विकारों का शान्त होना । ये विकार शान्त होने पर ही मन-मस्तिष्क में शान्ति हो सकती है, तनावों से मुक्ति मिल सकती है, विविध चिन्ताओं से छुटकारा मिल सकता है । वैरविरोध, लड़ाई-झगड़े, संघर्ष, कलह, ईर्ष्या, द्वेष, मात्सर्य, एवं क्रोधादि कषायों से आत्मा को आन्तरिक वृत्ति मलिन और कुटिल हो जाती है। आत्मपरिणामों की सरलता और आत्मकल्याण की भावना मलिन हो जाती है, आत्मशुद्धि एवं आत्म-विकास का उत्साह मन्द पड़ जाता है । मोक्ष के लक्ष्य से ऐसा व्यक्ति कोसों दूर हो जाता है । कषाय या रागद्वेषादि जिसमें तीव्रतम होते हैं, वह व्यक्ति आत्म-स्वरूप को नहीं पहचान सकता। अतएव उसकी दृष्टि आत्मलक्ष्यी न होकर संसारलक्ष्यी बन जाती है। तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप को जानने में उसकी रुचि एवं श्रद्धा नहीं होती। इसीलिए अमितगति श्रावकाचार में कहा गया है ' राग-द्वष-क्रोध-लोभ-प्रपंचाः, सर्वानावासभूता दुरताः । यस्य स्वान्ते कुर्वते न स्थिरस्वं, शान्तात्माऽसौशस्यते भासहः ॥" समस्त अनर्थों के घर के समान, कठिनता से अन्त किये जाने वाले राग, द्वेष, क्रोध, लोभ आदि प्रपंच जिसके चित्त में स्थिरता नहीं पाते, ऐसा भव्यसिंह शान्तात्मा प्रशंसनीय है। क्योंकि शम गुण उसके जीवन में बस गया है। . __ वास्तव में राग, द्वेष, क्रोधादि, कषाय, एवं मोहादि विकार उपशान्त होने पर ही सम्यग्दृष्टि में यह गूण प्रकट होता है। कषाय की आग शान्त होने पर ही व्यक्ति में सम्यग्दर्शन का प्रादुर्भाव होता है। जो व्यक्ति बात-बात में भड़क उठता है, जरा-सी मन के प्रतिकूल बात सुनते ही उत्तेजित हो जाता है, जरा-सा किसी ने कुछ कह दिया, या अपमान कर दिया तो एकदम आगबबूला हो उठता है, किसी ने बात नहीं मानी तो एकदम लड़ते-झगड़ने और मरने-मारने को तैयार हो जाता है, स्वार्थसिद्धि न होने पर दूसरों का अहित कर बैठता है, जरा-सो प्रतिकूल परिस्थिति होते ही आत्महत्या करने को उतारू हो जाता है, अथवा दूसरे का घर जलाने, फसल जलाने, पत्थर वरसाने, या लूटपाट करने पर आमादा हो जाता है, अहंकार इतना प्रचण्ड है कि अपनी गलती या अपराध होने पर भी किसी से क्षमा मांगने, उसकी क्षतिपूर्ति करने या नम्रतापूर्वक उससे समझौता करने को तैयार नहीं होता। क्षमा, धैर्य, शान्ति, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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