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________________ १५२ । सद्धा परम दुल्लहा श्रमण संस्कृति के मूल में श्रम, सम और शम; ये तीन गुण गभित हैं। किसी व्यक्ति में सम्यग्दर्शन है या नहीं ? इसको प्रथम परख के लिए शास्त्रकारों ने ये तीन गुण होने आवश्यक बताएँ हैं। कहीं-कहीं केवल 'शम' या 'प्रशम' गुण को ही सम्यक्त्व का पहला चिन्ह बताया है। इसे 'उपशम' भी कहा गया है। सम का स्वरूप जिसमें सम्यग्दृष्टि होती है, वह जानता है कि राग, द्वेष, मोह, क्रोधादि चार कषाय, एवं इन्द्रिय विषय-वासना, ये मोक्ष प्राप्ति में बाधक हैं, आत्मा को जन्म-मरणरूप संसार में, चारों गतियों में भटकाने वाले हैं, ये जन्म-जन्म में अशान्ति, यातना, दुःख और संकट पैदा करने वाले हैं, तथा इन सब के कारण अशुभकर्मों का बन्ध होता है, जिनके कारण प्राणी को कष्ट एवं दुःखदायक फल भोगना पड़ता है। अतः मोक्ष प्राप्ति में बाधक इन कारणों को दूर करना मेरे लिए अनिवार्य है। इन्हें दूर करने के लिए सम्यग्दृष्टि में सर्वप्रथम 'शम' गुण का होना अनिवार्य है। शम, प्रशम, उपशम, शमन या शान्ति, ये सब प्रायः एकार्थक हैं। सम्यग्दृष्टि की मुख्य पहचान यह है कि वह परम शान्त हो, सरल हो, सदैव प्रसन्न रहता हो, प्रत्येक परिस्थिति में वह सहसा उत्तेजित न होता हो, स्वभाव से तीव्र कषाय (क्रोध, मान, माया और लोभ), तीव्र राग-द्वेष, मोह तथा तीव्र विषय-वासनादि विकारों से मुक्त हो। शम के इसी लक्षण का समर्थन गुणभूषण श्रावकाचार' में किया है "यद् रागादि-दोषेषु चित्तवृत्तनिर्वहणम् । शम इत्युच्यते तज्ज्ञ : समस्तव्रतभूषणम् ॥" ‘रागादि (क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह आदि) विकार भावों का चित्तवृत्ति (आत्मपरिणामों) में उपशमन होग, शान्त होना, शम प्रशम, या उपशमन गुण कहलाता है । जो समस्त व्रतों का आभूषण है।' ___ शम गुण का सामान्यतया अर्थ होता है मन में तीव्र राग-द्वेष, तीव्र मोह, तीव्र कषाय अथवा अहंता-ममतावश तोव हठाग्रह, कदाग्रह या १. गुणभूषण श्रावकाचार, उद्देश १/४८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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