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________________ 'शम' का द्वितीय रूप-शम | १५१ वह थोड़ा ही पढ़ा-लिखा हो, बी. ए. एम. ए. की डिग्री उसे प्राप्त न हो, चाहे वह सर्वचारित्री हो या देशचारित्री, चाहे वह दीर्घ तपस्वी या क्रियाकाण्डी न हो। अथवा शास्त्रों में पारंगत न हो, प्रवक्ता या व्याख्याता न हो। परन्तु यदि उसमें ये पांचों लक्षण विद्यमान हैं तो कहा जा सकता है कि उसके जीवन में सम्यग्दर्शन या सम्यक्त्व है । उसकी दृष्टि संसारलक्ष्यी नहीं, मोक्षलक्ष्यी है, तथा भौतिकलक्ष्यी या पुद्गललक्ष्यी नहीं, आत्मलक्ष्यी है । इन पांचों लक्षणों पर हम क्रमशः विश्लेषण करेंगे। इन पांचों में से सर्वप्रथम हमें 'सम' पर विचार करना है। यह श्रमण संस्कृति का मूलभूत तत्त्व है । प्राकृत भाषा में इसे 'समण' कहा गया है । समण शब्द में से 'सम' तत्त्व प्रादुर्भूत हुआ है । प्राकृत भाषा के 'सम' शब्द के संस्कृत में तीन रूपान्तर होते हैं-शम, श्रम और सम । इन तीनों के अनेक अर्थ होते हैं। सम्यग्दृष्टि की पहचान के लिए ये तीनों आवश्यक हैं । सर्वप्रथम 'शम' गुण का विश्लेषण करते हैं। सम्यक्त्व की पहली पहचान : शम गुण से सांसारिक प्राणी आदिकाल से जन्म-मरणरूप संसार में भटक रहा है । देव, मनुष्य, तिर्यञ्च और नरक गतियों और विविध योनियों में भटकते-भटकते उसे अनन्तकाल हो गया। कषायों और विषय वासनाओं के जाल में, राग-द्वेष और मोह के प्रपंचों में फंसे रहने के कारण जीव को यह भान भी नहीं होता कि मेरे इस संसार-परिभ्रमण का क्या कारण है ? यह संसार-परिभ्रमण यों ही चलता रहेगा या इसे घटाया या इसका अन्त किया जा सकता है ? अगर इसे कम किया या इसका अन्त किया जा सकता है, तो कैसे ? किन उपायों से संसार-परिभ्रमण के मूलभूत कारणों को दूर किया जा सकता है ? इन वस्तुओं का यथार्थ भान तथा जिनोक्त तत्त्वों पर यथार्थ श्रद्धान जिसे हो जाता है, वह व्यक्ति सम्यक्त्वी या सम्यग्दृष्टि कहलाता है । जन्म-मरण के चक्र की वृद्धि करने वाले कषायादि पदार्थों को शान्त करने का वह प्रयत्न करता है। अपने प्रबल पुरुषार्थ से वह कषायों और विषय-वासनाओं को शान्त करने में सफल हो जाता है। उसकी विकारी वत्तियाँ उपशान्त हो जाती हैं। उसकी चेष्टाओं, हाव-भावों, मनो. भावों, वचनों, बौद्धिक क्षमता कार्यों आदि में 'शम' गुण की झलक दिखने लगती है। उसी पर से यह जाना जाता है कि इस व्यक्ति में सम्यग्दर्शन या सम्यक्त्व का प्रादुर्भाव हो गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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