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________________ 'शम' और उसका स्वरूप | १४७ है, वहाँ विचरण या विहरण शब्द आता है । इसका रहस्य है साधु को मन, वचन, काया से संयम साधना या स्व-परकल्याण-साधना में विचरण करते रहना चाहिए । वैदिक ऋषि ने भी कहा है 'चरैवेति चरैवेति, चरन्वै मधु विन्दति ।' चलते रहो, चलते रहो। जो चलता है, वह मधु का माधुर्य प्राप्त करता है। आध्यात्मिक सम्पत्ति या आत्मगुणों का धन उसे ही प्राप्त होता है, जो अहर्निश साधना में श्रम करता है। उसी का भाग्य चमकता है जो तप, संयम में पुरुषार्थ करता है। वस्तुतः श्रमण संस्कृतिमलक श्रम ही साधक के लिए प्राणवायु है । बिना बोये कुछ नहीं उगता, इसी प्रकार बिना श्रम किये सद्गुणों की फसल प्राप्त नहीं होती। भाग्यवाद और पुरुषार्थ में कौन सा उपादेय भारतवर्ष में भाग्यवाद ने श्रमण संस्कृति के श्रमवाद--पुरुषार्थवाद को बहुत धक्का पहुँचाया है । जो भाग्य में लिखा है-वही होगा, इस अन्धविश्वास ने लोगों को मूढ़ बनाया। लोग हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे । जहाँ कहीं भी, किसी निर्बल पर कोई राजा, धनाढ्य, सत्ताधीश या अधिकारी अन्याय, अन्याचार या जुल्म करता, तब पुरोहित और पण्डित यह कहकर सामान्य लोगों को आश्वासन देने लगे कि उसका भाग्य ही ऐसा था । भाग्यवाद की इस नशीलो गोली ने मनुष्यों में अकर्मण्यता, निष्क्रियता और आलस्यपरायणता पैदा की। सम्यग्दृष्टि साधक केवल भाग्य को नहीं कोसता, या केवल भाग्य के भरोसे रहकर पुरुषार्थहीन बनकर नहीं बैठ जाता है । वह सोचता है कि भाग्य पूर्व-पुरुषार्थ है, जो पहले किया जा चुका है, जिसका फल जीव भोग रहा है या भोगेगा। और जो श्रम अभी किया जा रहा है, वह वर्तमान पुरुषार्थ है । भाग्य में क्या है ? इसे तो ज्ञानी के सिवाय कोई नहीं जानता, अतः मनुष्य को सत्पुरुषार्थ करते रहना चाहिए। प्रारब्ध, दैव या भाग्य प्रकट नहीं है, पुरुषार्थ ही अधिक प्रकट है। वस्तुतः भाग्य पुरुषार्थ की ही छाया है। हरिकेशबलमुनि यदि भाग्य भरोसे बैठे रहते तो चाण्डाल जाति में उत्पन्न होने के कारण जीवन भर हीनभावनाग्रस्त, दलित, शोषित, पीड़ित रहते या नीचकर्मों में प्रवृत्त रहते, परन्तु उन्हें श्रमण संस्कृति का मंत्र मिला, उन्होंने तप-संयम की साधना में पुरुषार्थ किया तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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