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१४६ | सद्धा परम दुल्लहा
दैनिक कार्यों में श्रम करना पड़ता है, उसके लिए भी यही आदेश- सन्देश वीतराग तीर्थंकरों का है कि वह अपने व्रतों की मर्यादा में रहकर श्रम करे । यद्यपि गृहस्थ श्रावक अहिंसादि का पूर्णरूपेण पालन नहीं कर पाता, तथापि उसके जीवन में भी यतना और विवेक रहता है ।
जो साधक श्रमयोगी बनकर श्रम करता है, वह श्रम के साथ मनोयोग को लगा देता है । वह जो भी श्रम करता है, उसे पहले देख-परख कर करता है । जैसे--- भोजन का श्रम करना है तो वह सोचता है - यह भोजन मेरे लिए हितकर है या नहीं ? मुझे कौन-सा और कितनी मात्रा में भोजन करना चाहिए ? फिर वह भोजन भी यतनापूर्वक न्यायप्राप्त ही करता है । श्रम के साथ वह आसक्ति, फलाकांक्षा से दूर रहता है । जैन साधु के लिए पुरानी कहावत हैक्षण निकम्मो रहणो नहीं, भणनो गुणनो आतम-राम ।
उत्तराध्ययन सूत्र में साधु जीवन की दिवस और रात्रि का चर्या का सम्यक् दिग्दर्शन है, इससे भी स्पष्ट है कि साधु को आत्म-साधना में सतत श्रमरत रहना चाहिए ।
यह तो सर्वविदित है कि इस प्रकार की सम्यक् श्रमशीलता (पुरुषार्थ - पराक्रम) से तन, मन और मस्तिष्क के कल पुर्जे सदैव क्रियाशील, अप्रमत्त एवं प्रखर रहते हैं । उनकी तीक्ष्णता बढ़ती जाती है । निकम्मे एवं आलसी बनकर खा-पीकर सुख से शयनशील साधु को 'पापश्रमण' कहा गया है । निकम्मा पड़ा रहने वाला औजार जंग खा जाता है, जबकि निरन्तर काम में आने वाला तेज तर्रार रहता है, चमकता है । इसी प्रकार निरन्तर सम्यक् श्रम करने वाला साधक तेजस्वी बनता है । शास्त्र पुकारपुकार कर कहते हैं - अधर्माचरण में समय को नष्ट न करने वाला साधक अथवा उचित अवसर पर सम्यक् पराक्रम करने वाला साधक पीछे पछताता नहीं |
शास्त्रों में जहाँ-जहाँ साधुओं को किसी धर्मक्रिया की बात चलती
१. जा जा वच्चइ रयणी, न सा पडिनियत्तइ । अहम्मं कुणमाणस्स अफला जंति राईओ ॥ २. जेहि काले परक्कतं, न पच्छा परितावए ।
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- उत्तराध्ययन सूत्र
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