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'शम' और उसका स्वरूप | १४५
आसक्ति, फलाकांक्षा, प्रसिद्धि आदि विकारों से दूर रहकर सच्चा श्रमण व श्रमणोपासक बाह्य-आभ्यन्तर तप, संयम एवं क्षमादि धर्म में पुरुषार्थ करता है। वह अपनी आत्मशुद्धि करके कर्मक्षय कर लेता है। किसी कवि ने ठीक ही कहा है-- नर नारायण बन जाएगा
जब निज पुरुषार्थ जगाएगा ॥ ध्रुव ॥ पापों के बन्धन टूटेंगे, विषयों से नाते छूटेंगे
जब आतम-शक्ति जगाएगा ।। नर० ॥१॥ बादल के पीछे दिनकर है, कर्मों के पीछे ईश्वर है। जब अपनी ज्योति जगाएगा । नर० ।। २ ।।
सतत श्रम करे वही श्रमण श्रमण जीवन में सर्वत्र श्रम का स्वर गूंजता है। श्रमण शारीरिक श्रम भी करता है, खाता, पीता, सोता, उठता, बैठता एवं चलता है । वह भाषण, उपदेश, प्रेरणा करता है, मंगलपाठ सुनाता है, त्याग-प्रत्याख्यान, व्रत-नियम आदि प्रदान करता है, सप्तव्यसनों तथा हिंसा आदि आस्रवों का त्याग कराता है, इस रूप में वह वाचिक श्रम भी करता है । संघ, समाज, परिवार, राष्ट्र, व्यक्ति एवं स्वयं के शुभ, मंगल, कल्याण एवं हित के लिए चिन्तन करता है, मन से संसार की गतिविधि पर चिन्तन करता है, तथा स्वाध्याय, लेखन आदि मानसिक एवं बौद्धिक श्रम भी करता है। वह ग्रामानुग्राम विहार करता है, भिक्षाटन करता है, शरीर की अन्य क्रियाएँ भी करता है। प्रतिलेखन-प्रतिक्रमणादि धर्मक्रियाएँ भी करता है। परन्तु इन श्रमों के पीछे उसकी दृष्टि यतना एवं विवेक की रहती है। वह अपने महाव्रत, एवं सम्यक्त्व की हानि इन सब क्रियाओं के करते समय नहीं होने देता। उसकी दृष्टि में स्वपरकल्याण, आत्महित, एवं आत्मा के निजगुणों का विकास मुख्य है । वह फूंकफंक कर कदम रखता है। इसी प्रकार श्रावक को
-~-~-दशव० अ० ४
१. जयं चरे जयं चिट्ठे जयमासे जयं सए। ___जयं भुजंतो भासंतो पावकम्मं न बंधई । २. सर्वएव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधि । ___ यत्र सम्यक्त्व हानिर्न न स्यात् व्रतदूषणम् ॥ ३. चरे पयाई परिसंकमाणो, जं किंचि पासं इह मन्नमाणो ।।
-नीतिवाक्यामृत
-उत्तरा.
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