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________________ १४४ | सद्धा परम दुल्लहा उपसर्गसहन, दुःख-कष्ट आदि में समभाव, महाव्रत, क्षमादि धर्मों के आचरण में पुरुषार्थ कर एवं राग-द्वेष, विषय-कषाय से मुख मोड़कर घाति कर्मों का क्षय कर केवलज्ञान केवलदर्शन प्राप्त कर लेते हैं। फिर शेष चार अघाती कर्मों का भी नाश करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाते हैं। इस प्रकार सम्यक दिशा में आध्यात्मिक पुरुषार्थ करने वाले मानव सभी रीतियों से कर्मों के साथ युद्ध करके आत्म का पूर्ण विकास कर लेते हैं। संसार में जितने भी वीतराग महापुरुष हुए हैं, चाहे उनका नाम राम हो, महावीर हो, महादेव हो, या अन्य कोई हो ; वे अपने ही आध्यात्मिक विकासमूलक श्रम द्वारा परमपद को प्राप्त हुए हैं। उन्होंने कर्मक्षय करने के लिए स्वयं सम्यक् पुरुषार्थ किया। किसी देवी, देव, ईश्वर, भगवान् या अवतार ने हाथ पकड़कर उन्हें संसार-सागर से तार नहीं दिया, वे स्वयं के आध्यात्मिक श्रम से तिरे हैं। शास्त्रों में उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पौरुष-पराक्रम का उल्लेख साधुसाध्वियों के संलेखना-संथारा के प्रसंग में आता है। जो भी साधु या साध्वी अपने अन्तिम समय में भगवान् महावीर जैसे जगत्-गुरु या अपने महान् गुरु के समक्ष सविनय प्रार्थना करता है कि मेरा शरीर अब एकदम जीर्ण हो गया है, उसमें अब धर्माचरण की विशिष्ट शक्ति नहीं रह गई है। अतः मेरी इच्छा है कि आपकी आज्ञा (अनुमति) हो तो जब तक मेरे शरीर में उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पौरुष-पुरुषार्थ है, तब तक मैं संलेखना-संथारा करके समाधिपूर्वक इस शरीर का व्युत्सर्ग करू। इसका फलितार्थ यह है कि साधक, फिर वह श्रावक हो या साधु, अपनी जिन्दगी की अन्तिम सांस तक आध्यात्मिक श्रम करे, धर्माचरण में अपने बल वीर्य (शक्ति), पुरुषार्थ, एवं पराक्रम को लगाए। ___ अज्ञानी एवं मिथ्यादृष्टि लोग कायर एवं अकर्मण्य बनकर कर्मों के नचाये नाचते रहते हैं । न तो वे कर्मक्षय करने का कोई उपाय जानते हैं या जानने का प्रयत्न ही करते हैं, तदनुरूप पूरुषार्थ करना तो दर की बात है। कर्मों के उदय आने पर वे समभाव से शान्तिपूर्वक उन्हें भोग नहीं सकते। न ही समभावपूर्वक कष्ट सहने का पुरुषार्थ करते हैं। राग-द्वष-मोहवश नानाकर्मबन्धन करते रहते हैं। कर्मक्षय करने का वे पुरुषार्थ ही नहीं करते । लकड़ी, पत्थर आदि निर्जीव पदार्थों की तरह कर्मों के प्रवाह में बहकर संसार में विविध गतियों और योनियों में ठोकरें खाते फिरते हैं मगर हिम्मत करके कर्मों को क्षय करने का सम्यक श्रम नहीं कर पाते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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