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शम' और उसका स्वरूप | १४३
यद्यपि आत्मा का वास्तविक स्वरूप अनन्तज्ञानमय, अनन्तदर्शनमय, अनन्तशक्तिमय एवं अनन्त आत्मिक सूखमय है। इस आत्मस्वरूप को पूर्णरूपेण प्राप्त करना ही परमात्ममय होना है। सम्यग्दृष्टि आत्मा यह भलीभाँति समझ लेता है कि इस समय मेरी आत्मा ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के आवरण के कारण ज्ञान, दर्शन, शक्ति और सुख ये आत्मिक गुण बहुत ही दबे हुए हैं । मैं अपने आध्यात्मिक श्रम के बल पर अशुभ कर्मों को शुभ में बदल सकता है, पापकर्म को बदलकर पुण्यकर्म के रूप में परिणत कर सकता हूँ, अथवा अणुव्रतादि श्रावकव्रतों, अथवा महाव्रतों समिति-गुप्ति, परीषह-विजय, तप, कषायविजय आदि में पुरुषार्थ करके कर्मक्षय कर सकता है । इसी प्रकार के आस्रवनिरोध के पुरुषार्थ द्वारा कर्मों का आगमन रोक सकता हूँ। मिथ्यात्व-आस्रव के दूर होते ही, आठ कर्मों की १४८ प्रकृतियों में से १६ प्रकृतियों का बन्ध रुक जाता है फिर अनन्तानुबन्धी कषाय दूर होकर सम्यग्दष्टि होते ही दूसरी २७ प्रकतियों का बन्ध भी रुक जाता है। अर्थात्- चतुर्थ गुणस्थानवर्ती अविरतसम्यग्दृष्टि के ४६ कर्म प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता। साधारण से सम्यक् पुरुषार्थ से इतना भारी लाभ होने लगता है । अणुव्रती श्रावक होने पर तो अन्य १० कर्म प्रकृतियों का बन्ध होना भी रुक जाता है। इससे आगे बढ़कर तप, परीषहजय,
1 कर्मों के इस प्रकार से बदलने को संक्रमण कहते हैं। ३ कुल १४८ प्रकृतियों में से १२० प्रकृतियों का बन्ध होता है, उनमें से मिथ्यात्व
आश्रव दूर होते ही प्रथम गुणस्थान की ३ और दूसरे गुणस्थान की १६, यों कुल १६ प्रकृतियों का बन्ध रुक जाता है । वे इस पकार हैं-१. आहारक शरीर २. आहारक अंगोपांग, और ३. जिननामकर्म, तथा ४. मिथ्यात्व मोहनीय, ५. हुंडक संस्थान, ६. नपुंसक वेद, ७. नरकगति, ८. नरकानुपूर्वी, ६. नरकायु, १०. छेवट्ट संघयण, ११. एकेन्द्रिय जाति, १२-१४ तीन विकलेन्द्रिय, १५-१८ चार स्थावरनाम १६. आतपनाम । तीसरे गुणस्थान में २७ प्रकृतियों का वन्ध रुक जाता है-४ अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया लोग, ५ स्त्यानगृद्धि ६ निद्रानिद्रा, ७ प्रचला-प्रचला, ८ दुर्भगनाम, ६ दुःस्वरनाम, १० अनादेय नाम, ११ न्यग्रोध संस्थान, १२ सादि संस्थान, १३. कुब्जक संस्थान, १४. वामन संस्थान, १५. ऋषभ नाराच संघयण १६. नाराच संघयण, १७. अर्धनाराच, १८, कीलक संघयण, १६. अशुभ विहायोगति, २०. स्त्रीवेद, २१. नीचगोत्र, २२. तिर्यंचगति, २३. तिर्यञ्चानुपूर्वी, २४. तिर्यञ्चायु, २५. देवायु, २६, मनुष्यायू और, २७, उद्योतनामकर्म । सं०
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