SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 293
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४२ | सद्धा परम दुल्लहा करके लोगों को अपने साम्प्रदायिक जाल में फंसाने या सम्प्रदाय में बाँधे रखने के लिए होता है। कई अज्ञानीजन क्रियाकाण्डों या कष्ट-सहिष्णुता का प्रदर्शन खूब करते हैं, पर उसके पीछे या तो अहंकारवृत्ति रहती है या लोभवृत्ति। हिंसा, असत्य, चोरी, जारी, बेईमानी, डाकेजनी, आगजनी, हत्याकाण्ड, ठगी आदि का भयंकर साहस करने वाले साहसीजन पाप कर्म बन्ध का पुरुषार्थ करते हैं, यह तो प्रत्यक्ष है। कई व्रत, नियम, त्याग, प्रत्याख्यान, एवं अन्य धार्मिक क्रियाओं में पुरुषार्थ करते हैं, पर उनके पीछे उनकी वृत्ति इहलौकिक या पारलौकिक लाभ की, या सुखभोग की वाञ्छा या किसी भी प्रकार की निदान (नियाणा) पूर्ति सम्बन्धी आकांक्षा रहती है। ऐसा पुरुषार्थ भी सम्यक् नहीं है। कई व्यक्ति वर्षों तक श्रम धार्मिक क्रियाओं में करते हैं, परन्तु वे किसी न किसी सांसारिक फलाकांक्षा को लेकर करते हैं। जब उन्हें वर्षों तक इस प्रकार के श्रम करने पर भी मनोऽनुकूल फल नहीं मिलता तो वे अपने अशुभकर्मपूर्ण उपादान को न देखकर, या तो निमित्तों को, या भगवान् को कोसते रहते हैं, अपनी असफलता का रोना रोते रहते हैं। उलटा परिणाम आने पर हायतोबा मचाते हैं। इस प्रकार श्रम सम्यक और सही दिशा में न होने के कारण उनका किया-कराया सब श्रम आध्यात्मिक दृष्टि से सफल नहीं हो पाता। मिथ्यात्वी अज्ञानी मानव अधिक श्रम करता हुआ भी अधिक कष्ट में रहता है । आगे चलकर वह उलटी दिशा में हुए श्रम को एक अभिशाप मानने लगता है । दिशाहीन मिथ्यादृष्टिपरायण व्यक्ति चाहे श्रमरत हो, चाहे निष्क्रिय, वह संसार के जन्म-मरण के चक्र में वृद्धि करता है। उसके श्रम की दिशा सम्यक् न होने के कारण वह वांछनीय उपलब्धि नहीं प्राप्त कर पाता। . सम्यग्दृष्टि का श्रमणसंस्कृतिमूलक श्रम बहुत-से प्राणी अनादि काल से मिथ्यात्व एवं अज्ञान के वश राग-द्वषमोह एवं क्रोधादि कषायों के जाल में फंसे रहकर संसार में परिभ्रमण कर रहे हैं । विषय कषायों की बातों को ग्रहण करने का अहर्निश श्रम करते रहते हैं। उन्हें विषय-कषायों को रोक रखने, काबू में रखने, उनसे अनासक्त रहने अथवा सर्वथा छोड़ने की बात बिल्कुल नहीं सुहाती। रागद्वेष-मोह के निमित्तों से बचते रहने तथा उन्हें अपने पास न आने देने के पुरुषार्थ से दूर रहते हैं । कर्मशत्रुओं को क्षय करने का आध्यात्मिक श्रम न करके, वे प्रायः कर्मबन्धन का ही पुरुषार्थ करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy