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________________ १४० | सद्धा परम दुल्लहा और अपनी वंश परम्परा को भी शारीरिक श्रम के संस्कारों से विहीन कर दिया । शारीरिक श्रम छोड़ दिया और थोप दिया- केवल श्रमजीवियों या श्रमिकों पर । जिनके पास न तो प्रचुर धन था, और न ही सत्ता थी । कुछ बुद्धिजीवी अपने बुद्धिबल से उन श्रमजीवियों के शारीरिक श्रम के आधार पर प्रचुर धन कमाने लगे। कुछ सत्ताधीश उनके श्रम का शोषण करके उन्हें कम से कम धन देकर अपने सुख और ऐश्वर्य में वृद्धि करने लगे । इस प्रकार दो वर्गों में आध्यात्मिक लक्ष्यविहीन श्रम विभाजित हो गया (१) अपने पेट और परिवार के पोषण के लिए नीति और धर्म को छोड़कर मात्र शारीरिक श्रम करने वाले । (२) शारीरिक श्रम से दूर रहकर केवल बौद्धिक श्रम करके जीने वाले आरामतलबी या सुखभोगी मानव । इन दोनों प्रकार के वर्गों के श्रम से न तो किसी प्रकार का सम्यक् तप होता है, और न ही किसी प्रकार का संयम । मानवहित या प्राणिहित का लक्ष्य तो ऐसे श्रम के पीछे प्रायः नहीं होता । ये दोनों प्रकार के श्रम यद्यपि स्वपर अहितकर हैं, तथापि आरामखोरी एवं शोषणयुक्त हरामखोरी तो उस शारीरिक श्रम से भी बहुत बुरी है, भले ही उस शारीरिक श्रम के पीछे नीति और धर्म का लक्ष्य न हो । आरामखोरी और हरामखोरी तो मनुष्य को परवश, आलसी, अकर्मण्य एवं परमुखापेक्षी बनाती है । शारीरिक श्रम में जुटने वाले व्यक्ति को नीति, धर्म एवं अध्यात्म का चिन्तन मिले और वह उस प्रकार से श्रम करने में जुट जाए तो उसका 'श्रम' लक्ष्य की दिशा में मुड़ सकता है । भगवान् महावीर का परम उपासक, श्रमणसंस्कृति का पुजारी पूर्णिया श्रावक भी श्रम करता था। वह अपने समत्वलक्ष्य से अनुप्राणित होकर रूई की पूनियाँ बना कर अपने कुटुम्ब का पोषण करता था, शेष समय आध्यात्मिक श्रम में लगाता था । वह अपना समय आर्त्तरौद्रध्यान, आलस्य, निन्दा - विकथा, दूसरों के शोषण और स्वपर अहितकर कार्यों में नहीं बिताता था। उसकी दिनचर्या शारीरिक, बौद्धिक, मानसिक और आध्यात्मिक श्रम से परिपूर्ण रहती थी, परन्तु उसका सारा श्रम होता था लक्ष्य की दिशा में ही । - जबकि वर्तमान युग के अधिकांश व्यक्ति किसी न किसी प्रकार का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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