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________________ 'शम' और उसका स्वरूप | १३६ जे याऽबुद्धा महाभागा वीराऽसमत्तदंसिणो। असुद्धतेसि परक्कतं अफलं होइ सम्वसो । जो बोधि प्राप्त (प्रबुद्ध) नहीं हैं, भले ही वे महाभाग्यशाली हों, वीर हों, परन्तु वे मिथ्यादृष्टिसम्पन्न (असम्यक्दर्शी) हैं, उनका पराक्रम अशुद्ध है, और सर्वथा मोक्षफल से रहित होता है। वस्तुतः ऐसा श्रम (पराक्रम) जो मिथ्यात्व या अज्ञान से युक्त हो, वह अशुद्ध है । श्रमण-संस्कृति ऐसे श्रम को मोक्षलक्ष्य के प्रतिकूल मानती है। भौतिक विकासलक्ष्यी श्रम भी मोक्षलक्ष्यी नहीं यद्यपि संसार के अद्यावधि विकास पर दृष्टिपात किया जाए तो स्पष्ट प्रतीत होगा कि मानव ने अपने श्रम के बल पर ही वैज्ञानिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं जागतिक विकास किया है। परन्तु यह सारा विकास भौतिक है । यह श्रम हुआ तो बुद्धि तथा तन-मन-वचन के माध्यम से ही है, परन्तु इसके साथ आत्मा के हितों, अथवा आध्यात्मिक मूल्यों की प्रायः उपेक्षा की गई है, बल्कि यों कहना चाहिए कि प्रायः विश्व के प्राणियों के हितों की रक्षा को इसमें नजर अन्दाज किया गया है। अनेक वैज्ञानिकों और आविष्कारों ने अनेक खतरे उठाकर, अपना खून-पसीना सींचकर जगत् के विकास में अपना श्रम भी किया है, परन्तु उस श्रम के पीछे दृष्टिकोण भौतिक विकास का ही रहा, आध्यात्मिक विकास को कोई स्थान उसमें नहीं दिया गया। यही कारण है कि जगत् के उस भौतिक विकास से लोगों में वैषयिक सुखों की लालसा एवं आरामतलबी बढ़ी, स्वार्थभावना, प्रतिस्पर्धा, संघर्ष, ईर्ष्या, द्वष, परस्पर-विजिगीषा, कलह, क्लेश, युद्ध आदि बढ़े; हिंसा, असत्य, मक्कारी, चोरी, भ्रष्टाचार, अनीति, अन्याय एवं तस्करी बढ़ी। लोगों में प्रायः येन-केन-प्रकारेण धन कमाने, सत्ता प्राप्त करने, सुख-साधन बढ़ाने, ऐश-आराम करने और इन्द्रिय-सुखों का उपभोग करने की वृत्ति प्रबल हो गई । आत्महित, आध्यात्मिक विकास या आत्मकल्याण के लिए श्रम का लक्ष्य भूलकर अधिकांश जन समूह भौतिकतालक्ष्यी अथवा शरीरसुख-मुखी श्रम करने लगा। उस भौतिक श्रम में भी लोग मानवहित या प्राणिहित को भूल गए। कई अपने बौद्धिक श्रम के बल पर सत्ता और धन अर्जित करके अपने और अपनों के ऐश आराम एवं सुख-भोग के चक्कर में पड़ गए। उन्होंने स्वयं भी शारीरिक श्रम छोड़ दिया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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