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१३८ | सद्धा परम दुल्लहा 'श्रमण' शब्द की व्युत्पत्ति
श्रमण संस्कृति के इन तीनों मूल तत्त्वों पर हम यथास्थान विवेचन करेंगे ही। सर्वप्रथम हम 'श्रमण' शब्द का निर्वचन करना चाहते हैं, जिसमें से मूलमंत्र 'श्रम' फलित हुआ है। श्रमण शब्द श्रम् धातु से निष्पन्न हुआ है । संस्कृत व्याकरण के अनुसार श्रम् धातु तप और खेद (परिश्रम) के अर्थ में है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने 'श्रमण' शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की है.----
'श्राम्यति तपस्यतीति श्रमणः 'जो श्रम करता है, तप करता है, वह श्रमण है।'
श्रम् धातु के तप और खेद अर्थ को ध्यान में रखकर 'अभिधान राजेन्द्र कोष' में श्रमण शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की है
"श्राम्यति संसारविषयेषु खिन्नो भवति, तपस्यति वा स श्रमणः श्रममानयति पंचेन्द्रियाणि मनश्चेति वा श्रमणः ।"
अर्थात् -संसार के विषयों से जो खिन्न या उदासीन होता है, अथवा आत्मशुद्धि के लिए तप करता है, वह श्रमण है । अथवा तप, त्याग, संयम या रत्नत्रयरूप मोक्ष मार्ग के श्रम (पराक्रम) में अपनी पाँचों इन्द्रियों और मन को लगाता है, वह श्रमण है।
'श्रमण' शब्द पर से श्रमण संस्कृति के मूल तत्त्व के रूप में 'श्रम शब्द फलित होता है । सम्यग्दृष्टि को सम्यश्रद्धा की पहचान सर्वप्रथम इसी तत्त्व के द्वारा होती है।
श्रमण संस्कृति-मान्य श्रम
कोई यह तर्क कर सकता है कि श्रमण संस्कृति में जब श्रम का संदेश दिया है तो शारीरिक, मानसिक, वाचिक, बौद्धिक, आध्यात्मिक आदि सभी प्रकार का 'श्रम' करना चाहिए; परन्तु हम पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं, ऐसा श्रम श्रमण संस्कृति को मान्य नहीं है, जो स्व-पर-अहितकर हो, जिससे अपना और दूसरों का पतन हो, अथवा आध्यात्मिक दृष्टि से जो श्रम मिथ्यात्व, अविद्या या अज्ञान से युक्त हो । सूत्रकृतांग सूत्र में इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहा गया है
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