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'शम' और उसका स्वरूप | १३७
खवित्ता पुवकम्माइं संजमेण तवेण य ।
सव्व दुक्खपहीणट्ठा पक्कमति महेसिणो।' अर्थात्--महर्षिगण समस्त दुःखों का नाश करने के लिए संयम और तप द्वारा पूर्वकृतकों का क्षय करके मोक्ष प्राप्ति के लिए पराक्रम (श्रम - पुरुषार्थ) करते हैं। कहना होगा कि श्रमण संस्कृति विपरीत वातावरण, प्रतिकूल परिस्थिति और आत्मबाधक माहौल में भी व्यक्ति को अपनी आत्मशक्ति प्रकट करना, तप-संयम में पुरुषार्थ करना, तथा धर्म-पालन में आलस्य या प्रमाद को दूर करके पराक्रम करना सिखाती है। यदि दूसरों की कृपा; सहायता या आश्वासन पर निर्भर रहते तो अर्जुन मुनि, गजसुकुमाल मुनि आदि अपने पूर्वकृत प्रचुर कर्मों को कभी क्षय नहीं कर पाते, न ही आत्म-शुद्धि करके मुक्ति या पूर्णता की मंजिल तक पहुँच सकते थे। आध्यात्मिक विकास में सफलता भी मनुष्य अपने सहारे से ही पा सकता है । अतः श्रमण संस्कृति के मूलमंत्रों पर आत्मार्थी व्यक्ति को गहराई से विचार कर लेना आवश्यक है।
___ श्रमण संस्कृति के तीन मूलमंत्र --श्रम, शम और सम श्रमण संस्कृति का प्राकृत भाषा में मूल शब्द 'समण' है। जो आगमों, ग्रन्थों एवं पुस्तकों में यत्र-तत्र मिलता है। जैन और बौद्ध धर्म के आचार्यों और विद्वानों ने 'समण' शब्द के तीन संस्कृत रूप माने हैं- (१) श्रमण, (२) शमन और (३) समन । इन्हीं तीनों में से इस संस्कृति के तीन मूल मंत्र फलित होते हैं- श्रम, शम और सम । ये ही इस संस्कृति के मूलाधार हैं । ये तीनों श्रमण संस्कृति की विचार-आचार धारा के प्राण हैं । इन्हें छोड़ देने या इनकी उपेक्षा कर देने से व्यक्ति, समाज और समष्टि तीनों का अहित, पतन एवं ह्रास होता है। क्योंकि इन तीनों मूल मंत्रों का संदेश या निर्देश व्यक्ति के आत्महित, स्व-परकल्याण, एवं आध्यात्मिक विकास को लक्ष्य में रखकर ही हुआ है, और है । इनके संदेशों-निर्देशों का लक्ष्य शरीर और शरीर से सम्बद्ध सजीव-
निर्जीव दृष्ट पदार्थों की प्राप्ति या सांसारिक-- वैषयिक सुखों की अभिलाषापूर्ति कभी नहीं रहा। यह बात दूसरी है कि इस संस्कृति के अनुगामियों ने भी परस्पर साम्प्रदायिक एवं जातीय संघर्षों या सत्ताकीय स्वार्थों में उलझकर इसके मूलभूत मंत्रों का मूल्य गिराया है, अथवा अपना आत्मिक पतन किया है।
१. उत्तराध्ययन सूत्र अ. २८, गा ३६
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