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________________ १३६ | सद्धा परम दुल्लहा मानने लगते हैं । वे परिस्थितियों का रोना रोकर अपनी कार्य करने की असमर्थता बताने लगते हैं। परावलम्बी व्यक्ति को अपने पुरुषार्थ (श्रम) एवं अपने पराक्रम पर विश्वास ही नहीं होता। अतः श्रमण संस्कृति स्वयं तप, त्याग, संयम में पुरुषार्थ (श्रम) द्वारा व्यक्ति को आत्मनिर्भर, स्वावलम्बी एवं आत्मविश्वासी बनना सिखाती है । वह परिस्थितियों से स्वयं जूझकर आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है। यदि परिस्थितियाँ, परीषह या उपसर्ग (संकट) किसी को रोक पाते तो जगत् में जितने भी श्रेष्ठ कार्य हुए हैं, या जिन महापुरुषों ने सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र या तप-त्याग का पुरुषार्थ करके अपने चरम लक्ष्य-मोक्ष को प्राप्त किया है, उसे वे कभी प्राप्त नहीं कर सकते थे । अर्जुन मुनि, गज सुकुमाल मुनि आदि महान् साधकों पर जब विपत्ति (उपसर्ग) आई तो उन्होंने किसी भी देव-देवी या तीर्थकर, परमात्मा अथवा ईश्वर से सहायता की याचना नहीं की। यदि भगवान् या ईश्वर अथवा कोई देवी-देव उन्हें उनकी पुकार पर सहायता करने आते तो उनके अपने पूर्वकृत कर्म कैसे क्षय होते, अथवा वे अपना आत्म-विकास कैसे करते ? इसीलिए सम्यग्दर्शन या सम्यक्त्व का प्रथम लक्षण है-श्रम-शमसम पर पूर्ण निष्ठा एवं उन पर सर्वतोभावेन विश्वास । जिसे अपनी आत्मशक्तियों पर विश्वास नहीं, वह श्रमण संस्कृति का पुजारी कैसे हो सकता है ? अपनी आत्म-साधना के लिए दूसरों पर विश्वास रखने वाला एवं पराश्रय को ताकने वाला व्यक्ति तप, त्याग, संयम, तथा अहिंसा, सत्य आदि की साधना-आराधना करने की अपनी शक्तियों को छिपाता है। श्रमण संस्कृति के अमर गायक आचार्य कहते हैं संते वीरिए ण णिगहियन्वं । संते वीरिए अण्णो ण आणाइयव्वो।" "शक्ति होने पर उसे छिपाना नहीं चाहिए। शक्ति होते हुए (उस सत्कार्य के लिए) दूसरे को आज्ञा नहीं देनी चाहिए।" अतः श्रमण संस्कृति अपनी आत्मशक्ति पर विश्वास रखकर अपने मन-वचन-काय आदि साधनों का यथार्थ दिशा में उपयोग करना सिखाती है । जिसे अपनी आत्मशक्ति पर अटल विश्वास होता है, उसे परिस्थितियाँ, उपसर्ग, संकट या परीषह कभी परास्त नहीं कर सकते । श्रमण संस्कृति का सम्यग्दृष्टिसम्पन्न पुजारी आत्मशक्ति पर दृढ़ विश्वास रखकर परिस्थितियों का सामना करता है। अपनी मनःस्थिति को वह परिस्थितियों के अनुरूप ढाल लेता है । उत्तराध्ययनमूत्र में स्पष्ट कहा गया है-- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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