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'शम' और उसका स्वरूप | १३५
भारतीय संस्कृति श्रमण और ब्राह्मण धारा में भारत की प्राचीन संस्कृति 'श्रमण' और 'ब्राह्मण' इन दो धाराओं में विभक्त रही है । ब्राह्मण संस्कृति अतिसमृद्ध भौतिक जीवन का प्रतिनिधित्व करती आई है, जबकि श्रमण-संस्कृति उच्चतम आध्यात्मिक जीवन का। यही कारण है कि ब्राह्मण संस्कृति ऐहिक सुख समृद्धि तथा विषयसुख-भोग की अभिलाषा से स्वर्गीय सुखों की कल्पनाओं तक अटक जाती है, जबकि श्रमण-संस्कृति वैषयिक सुखों, तथा ऐहिक एवं पारलौकिक सुखों की आकांक्षा का त्याग करके शुभकर्मों के फलस्वरूप प्राप्त होने वाली स्वर्गसुखों की कामना, प्रसिद्धि, आदि से दूर रहकर मानव को मोक्षलक्ष्यी तप, त्याग एवं संयम के मार्ग पर चलने का संदेश देती है। निष्कर्ष यह है कि श्रमण मंस्कृति सम्यक् तप, त्याग एवं कर्मक्षयकारक रत्नत्रयरूप धर्म के मार्ग पर चलना सिखाती है।
श्रमण संस्कृति : स्वयं श्रम करना सिखाती है श्रमण संस्कृति जीवन में स्वश्रम (स्वावलम्बन) को उज्जीवित करने वाली संस्कृति है । जीवन में अपने पर आने वाले संकट, विघ्न, कष्ट आदि के लिए स्वयं को उत्तरदायी बताकर उसे स्वयं ही उनको निवारण करने की प्रेरणा देती है।
श्रमण संस्कृति के परम उन्नायक श्रमण शिरोमणि भगवान महावीर पर जब बहुत संकट (उपसर्ग) आने वाले थे, तब इन्द्र ने उनकी सेवा में उपस्थित होकर नम्र-निवेदन किया--"प्रभो! आप पर बहुत संकट आने वाले हैं। अतः आप आज्ञा दें तो मैं आपकी सेवा में रहकर आपको संकटों से बचाऊं।" प्रभु ने कहा- "इन्द्र न तो ऐसा कभी हआ है, न होगा और न है कि जिनेन्द्र दूसरों के सहारे से कभी विकास करें। वे सदा ही अपने बल-वीर्य और पराक्रम से अपनी आत्मा का विकास करते हैं और परमपद प्राप्त करते हैं
स्ववीर्येणैव गच्छन्ति जिनेन्द्राः परमं पदम्" श्रमण संस्कृति का स्वर है कि व्यक्ति अपने सुख-दुःख, उत्थान-पतन, विकास-ह्रास एवं हित-अहित के लिए स्वयं उत्तरदायी है । अपने उत्थान, विकास, शुद्धि एवं कल्याण के लिए व्यक्ति को परमुखापेक्षी न बनकर स्वयं श्रम करना चाहिए।
जो व्यक्ति परावलम्बी, पराश्रयी और परमुखापेक्षी होते हैं; वे आत्महीनता के शिकार होकर स्वयं को दुर्बल, अशक्त और पराधीन (ईश्वराधीन)
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