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आत्म-समर्पण का मूल्य | १३३
सिद्धान्तों से विचलित न हो जाए, इसी प्रकार गुरु-निर्ग्रन्थ अनगार के एवं शुद्ध सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप सद्धर्म के प्रति पूर्ण वफादारी--निष्ठा रखना भी समर्पण-साधना है। ऐसे समर्पित साधक को व्यक्तिगत स्वार्थ, अहंता-ममता, क्षद्रता एवं संकीर्णता के बन्धनों से ऊपर उठना आवश्यक है। महान् आदर्शों के प्रति आत्मसमर्पण करने और अनन्य श्रद्धा-भक्तिपूर्वक निष्ठा रखने से ही समर्पण का सच्चा आनन्द मिल सकता है।
___ सच्ची आस्तिकता : परमात्मा के प्रति आत्म-समर्पण परमात्मा के प्रति आत्मसमर्पण करना ही वस्तुतः सच्ची आस्तिकता है । समर्पित साधक तब परमात्मा के ढाँचे में ही अपने गुण, कर्म और स्वभाव को ढालता है । वह सज्जनोचित सदाशयता से स्वयं को ओतप्रोत कर लेता है । उसके जीवन में आध्यात्मिकता आत्मावलम्बन के रूप में रहेगी, और व्यवहार में धार्मिकता, नैतिकता एवं कर्तव्यपरायणता होगी। परमात्मा को आत्मसमर्पण करने वाला साधक उनके अनुशासन में चलता है। वह अपनी रीति-नीति ऐसी बनाता है, जो परमात्म-भक्त को शोभा देती है। जैसे नाला अपने आपको जब नदी में मिलाता है तो उसी के प्रवाह में उसी के अनुरूप बहता है । ईन्धन जब अग्नि को समर्पित होता है तो अपने में आग के सारे गुण समाविष्ट कर लेता है। इसी प्रकार भक्त का भगवान् के प्रति समर्पण है। उसके दृष्टिकोण में ऐसा परिवर्तन आ जाता है कि उसमें किसी प्रकार की कामना, स्पृहा, तृष्णा या महत्वाकांक्षा नहीं रहती। भगवान् की आज्ञा को ही वह अपनी इच्छा बना लेना है । उसके चिन्तन में, चरित्र में एवं व्यवहार में आदर्शवादी उत्कृष्टता का समावेश हो जाता है। यही है --आत्म-व्युत्सर्गयुक्त समर्पणयोग की साधना का रहस्य !
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