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________________ आत्म-समर्पण का मूल्य | १३१ स्मृति में एकरस हो जाए; और उसी के सान्निध्य में तल्लीन होकर रहे, अथवा उसके ही चिन्तन में स्वयं को निविष्ट-दत्तचित्त कर दे। यह है- समर्पण-साधना का रहस्य ! समर्पणयोग का महत्त्व अध्यात्म-प्रतिपादनों में अनेक स्थानों पर अनेक ढंग से किया गया है। आचारांग सूत्र में समर्पणयोग की साधना का जो प्रतिपादन किया है, उसका सर्वश्रेष्ठ नमूना ज्ञातासूत्र में आये महामुनि मेधकुमार हैं । मेघकुमार ने जिस दिन भागवती दीक्षा ग्रहण की उस दिन उनका शयनासन सबसे अन्त में था। रात्रि को जो भी साधु लघुनीति के लिए जाता, अंधेरे में प्रायः उसके पैर की ठोकर लग जाती। इससे मेघमुनि क्षुब्ध हो उठे और प्रातःकाल होते ही मुनिवेष एवं उपकरण भगवान् को सौंप कर चले जाने का विचार किया। प्रातः ब्राह्ममुहूर्त में उठकर वे भगवान् के पास आए । अन्तर्यामी प्रभु ने उनकी मनःस्थिति पहचान कर उन्हें पदाघात के इस कष्ट से भी भयंकर कष्ट पूर्वजन्म में सहने की कथा कही तो उनके अन्तर्ह दय के तार झनझना उठे। उहोंने अपने सब विकार-विकल्पों का एक झटके में प्रभुचरणों में विसर्जन कर दिया और प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध हुए। स्वरूप में स्थित होकर सर्वात्मना प्रभुचरणों में समर्पित हो गए। उहोंने तत्क्षण प्रतिज्ञा की-प्रभो ! मैं आज से केवल आँखों के सिवाय समस्त अंग आपके चरणों में समर्पित करता है। भगवद्गीता में भी इसी प्रकार की समर्पण-साधना का प्रतिपादन किया गया है मग्येव मन आधत्स्व, मयि बुद्धि निवेशय । निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः ॥ "हे अर्जुन ! तू अपना मन मुझ में लगा, मेरे में ही बुद्धि को रख (मुझे बुद्धि सौंप) इसमें पश्चात् तू मेरे में निवास करेगा, अर्थात् ---तेरे हृदय में परमात्मत्व बस जाएगा । अथवा तू मुझे (शुद्ध आत्मस्वरूप को) ही प्राप्त करेगा। इसमें कोई संशय नहीं है।" इस प्रकार सर्वात्मना एवं सर्वांगीणरूप से समर्पण करने से समर्पित आत्मा को परमात्म-सान्निध्य का ऐसा दिव्य लाभ मिल जाता है, जिसके लिए वर्षों तक योगाभ्यास और जन्म-जन्मान्तरों के दोष-परिमार्जन की एक कठिन और लम्बी साधना करनी पड़ती। यही नहीं, समर्पित जीवन में पवित्रता की एक ऐसी भावना सन्निहित रहती है, जो साधक को भौतिक प्रवंचनाओं, प्रलोभनों एवं भयों से पतित होने से बचाती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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