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________________ १३० | सद्धा परम दुल्लहा प्रतिष्ठा पाने की ललक को लेकर प्रभु महावीर से बहुत दूर जा पड़ा। उसके अन्तःकरण में कषाय, राग-द्वेष, छल-छद्म भर गया । आत्म-समर्पण की वत्ति न होने से गोशालक कठोर क्रियाकाण्डी, घोर तपस्वी एवं बाह्य आचारपरायण होते हुए भी परमात्मत्व प्राप्ति, मोक्ष-प्राप्ति या आत्मस्वरूपोपलब्धि आदि ध्येय को प्राप्त न कर सका, बल्कि इनसे दूर से दूर होता चला गया। निष्कर्ष यह है कि आत्म-समर्पण अथवा आत्म-व्युत्सर्ग की सच्ची साधना में व्यक्ति को अपनी व्यक्तिगत मान्यताएँ धारणाएँ, बौद्धिक उछलकृद, यश-प्रतिष्ठा, प्रसिद्धि, महत्वाकांक्षा एवं अहंता-ममता आदि सब बातें अपने चरम ध्येय-मोक्ष या परमात्मा के प्रति बिना छल-छद्म के अर्पित कर देनी पड़ती हैं। उसके अन्तःकरण में किसी प्रकार की छल-कपट, ईर्ष्या, द्वोष, क्रोधादि कषाय को गांठ नहीं होनी चाहिए। लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने 'आत्म दानियों से' नामक पुस्तक में समर्पण की व्याख्या करते हुए लिखा है-"समर्पण का अर्थ है---मन अपना, विचार इष्ट के (अर्थात्-जिसे आत्म-समर्पण किया गया है); हृदय अपना, भावनाएँ इष्टि की; आपा अपना, किन्तु कर्तृत्व समग्र रूप से इष्ट का।' समर्पण के इस अर्थ के परिप्रेक्ष्य में अहंता से पूर्णतया अवकाश पा लेना ही साधक के लिए अभीष्ट है। इस दष्टि से समर्पण आत्म-कल्याण की सर्वोपरि साधना है। समर्पण में साधक का जीवन सतत प्रभु-समर्पित या ध्येय-समपित होता है। उसका प्रत्येक चिन्तन, मनन, ध्यान, चर्चा, कर्तृत्व एवं वाचन-अध्ययन, एक मात्र एक ही (प्रभु की या ध्येय की) दिशा में नियोजित रहता है। आचारांग सूत्र में भगवान महावीर ने समर्पणसाधना का निष्कर्ष बताया है "तद्दिट्ठीए तम्मुत्तिए तप्पुरक्कारे तस्सण्णी, तन्निवेसणे" साधक उस वीतराग प्रभु, ध्येय, दर्शन सिद्धान्त या गुरु के प्रति ही एकमात्र दृष्टि रखे, उसी की आज्ञा में तन्मय हो जाए या उसी के द्वारा प्ररूपित विषय-कषायों के प्रति आसक्ति से मुक्ति में ही मुक्ति माने; उसी को आगे (दृष्टिपथ में) रखकर विचरण करे, या शिरोधार्य करे, उसी का संज्ञान (स्मृति) सब कार्यों में रखे, या उसी द्वारा उपदिष्ट विचारों की १ आचारांग श्रु.१, अ० ५, उ० ४, सू० १६२ (आगम प्रकाशन समिति ब्यावर) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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