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१२६ | सद्धा परम दुल्लहा सम्मान और सहयोग निकृष्ट स्तर का होता है। लोगों की घृणा ओर विषमता ही उसके पीछे होती है।
महान् के लिए समर्पित न होने वाला व्यक्ति संकीर्ण-स्वार्थपरता अहंकारपरायणता एवं निरर्थक महत्त्वाकांक्षा से घिरा रहता है। वह स्वयं के लिए भी और दूसरों के लिए भी पतन, विनाश और संताप का कारण बनता है । दियासलाई स्वयं तो जलती ही है, अपने सम्पर्क क्षेत्र में आने वाली दूसरी वस्तुओं को भी जलाती है, अग्निकाण्ड खड़ा कर देती है । इसी तरह संकीर्ण स्वार्थपरायण व्यक्ति भले ही अपनी प्रतिभा से अनेकों को चमत्कृत कर दे, परन्तु अन्तिम परिणाम उसके अपने लिए तथा सम्पर्क में आने वालों या समग्र समाज के लिए भयंकर ही साबित होता है। वह उद्धत आचरण न भी करे, तो भी संघ, समाज, राष्ट्र या विश्व के लिए अपना यत्किचित् भी समर्पण किये बिना अपनी ही सुख-सुविधा और अहंता का परिपोषण करने वाला व्यक्ति दूसरों से सहानुभूति, सहायता एवं सहयोग के लाभ से वंचित रहता है, साथ ही उसकी सामर्थ्य, साधन-सामग्री एवं सम्पदा का लाभ भी समाज एवं राष्ट्र को नहीं मिल पाता। संकीर्ण स्वार्थपरायण व्यक्ति बाहर से तो निर्दोष मालूम होता है, परन्तु समाज से लेकर बदले में उसे कुछ भी न लौटाना एक प्रकार का नैतिक अपराध है। विचारवान् एवं विवेकी व्यक्ति संघ, समाज, राष्ट्र एवं विश्व के प्रति अन्तर्मन से समर्पित होता है, इसलिए उसके सोचने-विचारने की पद्धति यही होती है कि संघ, समाज या राष्ट्र व्यक्ति से महान् है । और महान् के प्रति विसर्जित कर देना ही समर्पण-साधना है । इस तथ्य को और अधिक स्पष्ट करना हो तो यों कह सकते हैं-स्वार्थ का परमार्थ में, व्यक्तिवाद का समूहवाद में, संकीर्णता का उदारता में, निकृष्टता का उत्कृष्टता में विसर्जन करना ही समर्पण का रहस्य है। समर्पण साधना के विविध पहलू
जिस प्रकार अपने से महान के लिए आत्म-समर्पण करना समर्पणयोग है इसी प्रकार आदर्शवादिता, चरित्रनिष्ठा, समाजनिष्ठा, एवं उत्कृष्ट के प्रति समर्पित जीवन भी इसी का अंग है। इसे श्रेयःसमर्पित जीवन भी कह सकते हैं । महान कार्य, महान् उद्देश्य समर्पित सेवाओं के बिना नहीं हो सकते । श्रेष्ठता के प्रति समर्पण आत्मा की क्षमताओं और सम्भावनाओं को उजागर करके व्यक्ति, समाज एवं समष्टि को प्रगति का पथ नव्य ज्योति
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