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________________ आत्म-समर्पण का मूल्य | १२७ और मोक्षरूप चरम लक्ष्य को सफलता प्राप्त करा सकता है। महाव्रत, समत्वयोग, कायोत्सर्ग, ध्यान, तप, परीषहजय, कषायविजय आदि जितनी भी आध्यात्मिक साधनाएँ हैं, या पारमार्थिक सेवाएँ हैं, वे समर्पण के अभाव में पनप ही नहीं सकतीं । इस समर्पित जीवन में इन्द्रियों को विषयभोगों से संतुष्ट करने, या तृष्णा, वित्तैषणा, लोकैषणा, पुत्रैषणादि एषणाएँ, वासना, अहंता, राग-द्वेषवृत्ति या कषायों की उत्तेजना आदि हेय प्रवृत्तियाँ बिलकुल त्याज्य होती हैं । ऐसा समर्पित जीवन मानवीय तथा देवी विभूतियों एवं क्षमताओं से विभूषित होता चला जाता है । और उत्कृष्टताओं और अनन्तचतुष्टयी आत्मिक शक्तियों को क्रमशः विकसित करता हुआ जीवन के चरमलक्ष्य - मुक्ति या परमात्मतत्त्व तक पहुँचा देता है । समर्पण से महालाभ उत्कृष्टता के प्रति श्रद्धासिक्त समर्पण अनन्यनिष्ठा का आध्यात्मिक संस्कार है, जो किसी भी क्षेत्र के लिए अनवरत शक्ति-संचार का प्रेरणास्रोत बन जाता है। बीज की सत्ता अत्यन्त क्षुद्र और नगण्य समझी जाती है । वह यदि अपने आप में अलग-थलग होकर सीमित संकीर्ण दायरे में पड़ा रहे तो कभी फलित- पुष्पित या विकसित नहीं हो सकता । वह भले ही किसी कीट को सन्तुष्ट कर दे, परन्तु इससे अधिक क्षमता उसमें नहीं होती । किन्तु वह बीज जो कल तक अत्यन्त तुच्छ एवं संकीर्ण घेरे में घिरा हुआ था, यदि स्वयं बिना झिझक और असन्तोष के पृथ्वी माता की गोद में समर्पित हो जाता है तो उसमें से विकास के नन्हे नन्हे अंकुर फूट पड़ते हैं । सूर्य की किरणें भी उसे शक्ति देती हैं। हवा उसे दुलराती और थपथपाती है । मेघ से उत्पन्न जलकण उसका अभिसिंचन करते हैं । सारी प्रकृति उसको पनपाने और विकसित करने में जुट जाती है। बीज जमीन के अन्दर नीचे-नीचे बढ़ता जाता है, और अपनी जड़ें एवं अपनी आधारभूमि सुदृढ़ कर लेता है । तथा ऊपर उठता-उठता एक विशाल वृक्ष के रूप में परिणत होता चला जाता है । वही बीज एक दिन ऐसा वृक्ष बनता है, जिसके आश्रय में सैकड़ों जीव-जन्तुओं को पोषण, पक्षियों को विश्राम एवं सैकड़ों प्राणियों को फल, फूल आदि के रूप में उपयोगी उपहार मिलता है । अपने समग्र जीवन में वह एक बीज करोड़ों बीजों का जनक एवं सहस्रों प्राणियों का आधार बनने का गौरव पाता है । परन्तु बीज यह सब गौरव पाता है आत्म समर्पण करने से । आत्म-समर्पण से उसकी महिमा एवं गरिमा अनन्तगुनी बढ़ जाती है । अणु से विभु, लघु से विराट बनने की प्रक्रिया आत्म-समर्पण के साँचे और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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