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आत्म-समर्पण का मूल्य
स्थायी आनन्द : आत्मसमर्पण में
विश्वकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने एक बार कहा था - " मनुष्य का स्थायी आनन्द इच्छित वस्तु की प्राप्ति में नहीं, अपितु अपने से महान् के लिए आत्मार्पण करने में है । वह महानता उच्चस्तरीय आदर्शों में, महान् व्यक्तियों में, राष्ट्र में, संघ में, समाज में, अथवा परमात्मा में हो सकती है | जब तक अपना सर्वस्व किसी महान् उद्देश्य के लिए समर्पित नहीं कर दिया जाता, या जब तक क्षुद्रता के बन्धनों से छुटकारा नहीं पा लिया जाता, तब तक मनुष्य सतत अशान्त एवं उद्विग्न बना रहेगा ।"
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उच्चस्तरीय आत्मिक आनन्द की प्राप्ति मनुष्य की सहज स्वाभाविक आवश्यकता है, साथ ही मनुष्य के लिए उस आध्यात्मिक आनन्द की प्राप्ति असम्भव भी नहीं है । परन्तु इस साधना के मार्ग में मुख्य बाधा है -- अहंता की । अहंता जहाँ आ जाती है, वहाँ मनुष्य आत्मकेन्द्रित, स्वार्थी और महत्त्वाकांक्षी हो जाता है । वासना, तृष्णा, महत्त्वाकांक्षा, त्रिविध एषणाएँ ( संतानैषणा, वित्तैषणा एवं लोकेषणा) इसी अहंता के इर्द-गिर्द घेरा डाले रहती हैं। मानव की महत्त्वाकांक्षाएँ प्रतिपल प्रतिक्षण बढ़ती-बढ़ती असीम तक हो जाती हैं । वे न तो औचित्य देखती हैं, और न उपयोग । नीति और मर्यादाओं की ओर भी महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति प्रायः ध्यान नहीं देता । तथाकथित व्यक्ति बड़प्पन के अहंकार में असीम भोगने, असीम जमा करने और असीम बर्बाद करने को तैसार रहते हैं । वे अपनी क्षमताएँ और साधनसम्पदाएं येन केन प्रकारेण कमाते हैं और उड़ाते हैं । उन्हें मिलने वाला
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