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________________ १२४ | सद्धा परम दुल्लहा यही बात उपासना के सम्बन्ध में कही जा सकती है। पंच परमेष्ठी देवों और यंत्रों का लाभ वे ही उठा सकते हैं जिन्होंने अपने व्यक्तित्व ( आत्मा ) को बाहर और भीतर से विचार और आचार से परिष्कृत करने की साधना कर ली है । औषधसेवन का लाभ उसे ही मिलता है, जो बताए हुए अनुपान पथ्य का ठीक तरह से उपयोग करते हैं । इसलिए पहले आत्मउपासना, फिर परमात्म-उपासना या पंचपरमेष्ठी - उपासना यह क्रम उपासना की पूर्ण सफलता के लिए आवश्यक है । जिस उपासक का अन्तःकरण - व्यक्तित्व जितना निर्मल होगा, उतनी ही उसकी उपासना सफल होगी । अतः उपास्य की उपासना से लाभान्वित होने के लिए पात्रता चाहिए । दूसरी बात - व्यक्ति की उपास्य के प्रति निष्ठा, श्रद्धा एवं भक्तिभावना जितनी गहरी एवं सुदृढ़ होगी, उतना ही वह उपास्य से लाभ उठा सकेगा । साधक की निष्ठा और व्यक्तित्व की प्रखरता होगी तो उसका उपास्य भी परिपुष्ट एवं समर्थ दृष्टिगोचर होगा, आत्मपरिष्कार में उससे उतनी ही अधिक सहायता मिलेगी। इसके विपरीत जिस व्यक्ति में आत्मिक विशेषताएँ भी हों, तथा उपास्य के प्रति निष्ठा, श्रद्धाभक्ति भी न हो, वह भले ही बाह्य तप, जप, आदि उपासनात्मक क्रियाकाण्ड कर ले, वह उपास्य से समुचित लाभ नहीं उठा सकेगा । तीसरी बात - कुसंस्कारी मन को उपासना में लगाना बहुत कठिन है । प्रारम्भ में आसन पर बैठते ही मन लग जाने की बात सोचना वैसी ही मूर्खता है, जैसी बीज बोते ही पेड़ खड़ा हो जाने की कल्पना । यथार्थ उपासना के लिए मन की एकाग्रता अनिवार्य है । वह एकाग्रता प्रारम्भ में नहीं, सफलता की स्थिति आने तक मिलती है । उपासना का तीन चौथाई परिश्रम तो मन की एकाग्रता साधने में ही लग जाता है तदुपरान्त एक चौथाई प्रयास में ही उपास्य के सान्निध्य का आनन्द मिलने लगता है । अतः शुद्ध उपासना द्वारा अपनी आत्मिक प्रगति के द्वार खोलिये । Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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