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________________ १२२ | सद्धा परम दुल्लहा जाती है कि पूर्वोक्त देवाधिदेव परमात्मा, निर्ग्रन्थ महात्मा तथा सद्धर्म व्यक्ति के स्मृतिपटल पर हरदम बने रहें तथा उनके गुणोत्कीर्तन से अवचेतन मन में उनके उत्कृष्ट गुणों के संस्कार संचित हों, तथा उन गुणों को प्राप्त करने का यत्किचित अभ्यास चलता रहे। इसके अतिरिक्त उनकी स्तुतिस्तोत्र के माध्यम से उन पर इतनी उत्कट भक्ति-श्रद्धा हो कि सांसारिक प्रलोभनों, भयों और कुसंस्कारों तथा दुर्गुणों से दूर रहा जा सके, विपत्ति या संकट आने पर भी मनुष्य धर्म से विचलित न हो, वीतराग देव और निर्ग्रन्थ गुरु की भक्ति-श्रद्धा से च्युत न हो। क्योंकि उनके प्रति श्रद्धा-भक्ति से, उनके जीवन चरित्र का स्मरण करने से मन को बहुत बड़ा आश्वासन मिलता है, धैर्य एवं समतापूर्वक संकट और कष्ट सहने की शक्ति प्राप्त होती है। साथ ही मानसिक अनुप्रेक्षण, शारीरिक कर्तृत्व एवं वाचिक प्रयोग में उपास्य की महत्ता को ओतप्रोत करने की आवश्यकता अनुभव होती रहती है। उपासना : उपास्य के नित्य स्मरण के लिए सर्वश्रेष्ठ उपाय प्रायः देखा जाता है कि अधिकांश मानव परमात्मा, महात्मा और सद्धर्म को भूले हुए रहते हैं, धम कमाने, ऐश-आराम करने और भोगविलास में ही अपना जीवन यापन करने में ही उनका चिन्तन-मनन-स्मरण चलता है। बहत-से लोग कुछ समय के लिए कभी-कभी या प्रतिदिन पंचपरमेष्ठी मंत्र का ५-७ बार या अधिक से अधिक १०८ बार स्मरण करके उपासना की इतिश्री मान लेते हैं, फिर सारे दिन वे परमात्मा, महात्मा और सद्धर्म को भूल जाते हैं। दिन भर अनैतिक और अधार्मिक आचरण करते रहते हैं, साम्प्रदायिक एवं जातीय उन्माद के वश मारपीट, दंगे, हत्याकाण्ड, धोखाधड़ी, बेईमानी आदि परमात्मा विरोधी कृत्य करते रहते हैं। यह उपासना नहीं, उपासना का दिखावा है । यही देव, गुरु और धर्म को विस्मृत करना है । थोड़ा-सा पूजा पाठ करके या केवल प्रतिमा के दर्शन करने मात्र से भगवान् को रिझाने की प्रवृत्ति उपासना नहीं है। परमात्मा अपनी पूजा-अर्चा या स्मृति-भक्ति कराने का भूखा नहीं। उपासना की प्रथम भूमिका-आत्मसाधना इसलिए उपासना की सफलता इसमें है कि आत्मिक प्रगति की पहली मंजिल साधना हो और उसके बाद उपासना हो । साधना का अर्थ ही है----आत्मपरिष्कार, आत्मसुधार, आत्मबोध, आत्मचिन्तन, आत्मविकास या आत्मनिर्माण । परमात्मा के सामने गंदा मन, निकृष्ट बुद्धि एवं भ्रष्ट तन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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