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उपासना का राजमार्ग | १२१
अवस्था प्राप्त करने के लिए अपने समय का एक अंश उपासना में अवश्य लगाना चाहिए। धोबी धुले हुए कपड़े पर जैसे टिनोपाल लगाकर अधिक सुन्दरता ला देता है, वैसे ही निर्मल और उज्ज्वल जीवन क्रम रहते हुए भी यदि उपासना का आश्रय लिया जाए तो उसमें समय की सुन्दर व्यवस्था दैनिक चर्या में विकसित होगी। प्रातःकालीन उपासना का प्रभाव दिन की समग्र चर्या पर पड़ेगा, तथा सायंकालीन उपासना का प्रभाव रात्रिचर्या पर पड़ेगा । शर्त यही है कि उपासना सिर्फ क्रिया काण्ड होकर न रह जाए, उसमें अनुप्रेक्षा और भावना से समन्वित प्राणप्रतिष्ठा भी अनिवार्य रूप से जुड़ी रहे । इससे प्रत्येक विचारशील व्यक्ति समझ सकता है कि उपासना समय की बर्बादी नहीं, किन्तु उसके श्रेष्ठतम सदुपयोग की महत्त्वपूर्ण चर्या है।
हउपासना का व्यावारिक और आध्यात्मिक पहलू उपासना का उद्देश्य परमात्मा-महात्मा के सामने गिड़गिड़ाना, झोली पसारना, या दीनतापूर्वक याचना करना नहीं है। दीनता न तो अनन्त सुषुप्त शक्तियों वाले मानव के लिए शोभनीय है और न ही परमात्मा महात्मा को प्रिय है। परमात्मा न तो खुशामद का भूखा है, न ही प्रशंसा की उसे आवश्यकता है। वह अपने आप में वीतराग है, उसकी महानता ही अपने आप में उसकी प्रशंसा है । खुशामद, चापलूसी प्रशंसा करके किसी से कुछ पाना ओछे स्तर का निकृष्ट कृत्य माना जाता है। वीतराग देव, निर्ग्रन्थ गुरु और सद्धर्म ये तीनों उपास्य हैं। वीतराग परमात्मा, निर्ग्रन्थ गुरु और उपासक के बीच यदि यही खुशामद, चापलूसी और दीनतापूर्वक याचना करने का ही गोरखधंधा चले तो दोनों की महिमा-गरिमा गिरगई, समझना चाहिए। और सद्धर्म तो आचरण मांगता है, वह थोथे क्रियाकाण्डों या कोरी प्रशंसा कर देने से वरदान रूप सिद्ध नहीं होता।
उपासना-सूत्र जैन धर्म में 'लोगस्स' पाठ (चतुर्विंशतिस्तव) नमोत्थुणं (शक्रस्तव) पाठ तथा नवकारमंत्र (पंचपरमेष्ठी नमस्कार मंत्र) अरिहंतो मम देवो आदि ऐसे उपासना-सूत्र हैं, जिनके माध्यम से देव, गुरु और धर्म के जप, ध्यान, कीर्तन, भजन स्तवन आदि द्वारा, वीतराग परमात्मा (अरिहन्त और सिद्ध) तथा निर्ग्रन्थ महात्मा एवं सद्धर्म की स्तुति गुणानुवाद एवं श्रद्धाभक्ति की जाती है उसमें खुशामद एवं चापलूसी नहीं है । न ही कोई निकृष्ट लौकिक याचना है। पूर्वोक्त माध्यमों से जप, ध्यान, स्तवनादि द्वारा उपासना इसलिए की
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