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________________ १२० | सद्धा परम दुल्लहा कष्टसाध्य त्याग-तप मूलक विधियाँ अपनाने को तैयार होगा ? यदि यह तथ्य यथार्थ होता तो मन्दिरों के पुजारी, पंडे या पण्डित लोग सर्वमनोरथसम्पन्न हो जाते, फिर उन्हें किसी प्रकार की कमी या अशान्ति नहीं रहती । किन्तु प्रत्यक्ष अनुभव ऐसा है कि ये वर्ग और भी दयनीय स्थिति में हैं । भले ही कुछ मन्दिरों के पुजारी धन से सम्पन्न हो गए हों, परन्तु आत्मिक समृद्धि से बहुत पिछड़े और गये-बीते, असन्तुष्ट एवं अशान्त प्रतीत होते हैं । जिन्होंने उपासना के बाह्य अंगों (पूजापत्री आदि) को सांसारिक कामनापूर्ति का साधन मानकर आन्तरिक शुद्धि के कर्त्तव्यों एवं धर्मक्रियाओं से मुँह मोड़ लिया, उनका आत्मिक उष्कर्ष अत्यन्त घटा है । उपासना का नित्य अभ्यास ही लाभदायक मशीनों की नित्य सफाई न की जाए तो उनमें लगा हुआ कीट - कीचड़ उनका भली भांति काम देना ही बन्द कर देगा । इसी प्रकार मन के ऊपर सतत चढ़ते रहने वाली अस्वच्छता, कषायों और विषय वासनाओं की मलिनता की उपेक्षा की जायेगी तो व्यक्ति का अन्तरंग ही नहीं, बहिरंग जीवन भी अव्यवस्थाओं, अवांछनीयताओं और नीतिधर्म-विरुद्ध क्रियाकलापों से भर जाएगा । इसलिए उपासना के माध्यम से आन्तरिक स्वच्छता का क्रम बिना व्यवधान के निर्बाध गति से चलता रहना चाहिए । उपासना का नित्य अभ्यास ही मन और आत्मा की शुद्धि एवं प्रखरता को स्थिर रख सकता है। यदि सैनिक लोग नित्य कवायद न करें, पहलवान रोजाना व्यायाम न करें, विद्यार्थी अपने पढ़े हुए पाठ की बार-बार आवृत्ति न करे तो इन सत्रकी प्रवीणता एवं कुशलता थोड़े ही दिनों में अस्त-व्यस्त एवं समाप्त हो सकती है । यही हालत मन की है । मन को यदि नित्य उपासना के माध्यम से उत्कृष्टता की ओर नहीं लगाया जाए तो वह निकुष्टता की ओर स्वयं ही लुढ़कता जाएगा। एक दो दिन के अभ्यास से वह निम्नगामी प्रवाह से हट नहीं सकेगा । अतः नित्य उपासना के द्वारा मन को उच्चस्तर पर बनाये और चढ़ाये रखा जाए, उसे भलीभांति साधा और संभाला जाए तो वह कल्पवृक्ष से कम नहीं. अधिक ही उपयोगी सिद्ध होता है । उपासना मन रूपी कल्पवृक्ष को सुविकसित बनाती है। उपासना के द्वारा समय का श्रेष्ठतम सदुपयोग अपना इहलौकिक जीवन सुधारने और पारलौकिक जीवन में उच्च Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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