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________________ उपासना का राजमार्ग | ११६ पाने के लिए प्रतिदिन उतना समय उपासना में लगाने में समय की बर्बादी नहीं, सार्थकता ही है। आत्मोत्कर्ष के लिए नित्य उपासना अनिवार्य आत्मोत्कर्ष में दिलचस्पी रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिदिन उपासना करना अनिवार्य है । यह नहीं सोचना चाहिए कि हम परमात्मा के आदेशों का पालन करते हैं, फिर हमें उसकी उपासना की क्या आवश्यकता है ? सुथार, लुहार, सूनार, मूर्तिकार, नाई आदि शिपो जीविका के लिए अपने मनोनीत कार्य में लगे रहते हैं। फिर भी वे अपने-अपने औजारों को जल्दी-जल्दी धार कराते रहते हैं। इसी प्रकार आत्मार्थी साधक के लिए भी उचित है कि उपासना के माध्यम से मनरूपी औजार को स्वच्छ एवं प्रखर बनाता रहे, ताकि मन कर्तव्यों और दायित्वों को भलीभाँति करता रह सके। मन यदि स्वच्छ और तेज तर्रार नहीं होगा, तो वह भोथरा हो जाएगा, उसके कर्तृत्व का स्तर गिरने लगेगा। इसलिए अन्य अनेक रुचिकर कार्यों में समय लगाया जाता है, उसी प्रकार मन को मांज कर स्वच्छ एवं प्रखर बनाने के प्रयास को भी दैनिक कर्तव्यों में शुभार किया जाए । पेट की भूख मिटाने के लिए बार-बार भोजन किया जाता है, उसी प्रकार आत्मा की भूख मिटाने के लिए उपासना का बार-बार नित्य आहार करना आवश्यक है। व्यक्ति शरीर शुद्धि के लिए स्नान करता है, वस्त्रों को धोला है, अपने मकान को रोज झाड़ से साफ करता है, बर्तन भी प्रतिदिन माँजता है, ताकि मलिनता बढ़े नहीं। एक बार की सफाई सदा के लिए काम नहीं देती। इसी प्रकार एक बार के स्वाध्याय, मनन, चिन्तन, प्रतिक्रमण, सत्संग, चर्चा-विचारणा से मन की सदा के लिए शुद्धि नहीं हो जाती । एक बार की ध्यान-कायोत्सर्ग, प्रायश्चित्त, उपवास आदि तपश्चर्या से आत्मशुद्धि भी नहीं हो जाती। मन और आत्मा सदा निर्मल स्थिति में बने रहेंगे, इसका कोई भरोसा नहीं; इसलिए अन्य बाह्य मलिनताओं की तरह मन और आत्मा पर छाने वाली मलिनता का भी नित्य परिष्कार आवश्यक एवं अनिवार्य है। उपासना का प्रयोजन यही है कि उस परिशुद्धि को दैनिक धर्मक्रियाओं में स्थान दिया जाए। ___ उपासना को कामनापूर्ति का साधन न समझो यह समझना भ्रान्ति है कि परमात्मा या देवी देवों की बाह्य पूजा और भक्ति द्वारा उन्हें प्रसन्न करके सब मनोकामनाएँ पूर्ण की जा सकती हैं, फिर इतने सस्ते और सरल मार्ग को छोड़कर क्यों कोई उपासना की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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