SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 269
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११८ | सद्धा परम दुल्लहा उपर्युक्त मान्यता में एक पक्षीय चिन्तन की संकीर्णता न होता तो किसी हद तक ठीक हो सकता था परन्तु भौतिक आवश्यकताएँ पूर्ण होने या श्रम द्वारा अपार धन और साधन उपलब्ध होने पर भी यदि उसके साथ आध्यात्मिकता, आत्मगुण (क्षमा, दया, सहिष्णुता, नैतिकता, ईमानदारी, व्यवहारकुशलता, निरालस्यता आदि ) न हों तो भौतिक साधनों एवं सम्पत्ति का महल भी एक दिन वाक्कलह, ईर्ष्या, द्वेष, कषाय, आलस्य, (प्रमाद) आदि दुर्गुणों के कारण धराशायी हो सकता है, या व्यक्ति निर्धन एवं साधनहीन हो सकता है । उपासना के बिना समाज, राष्ट्र, या विश्व की आत्माओं के साथ आत्मीयता अथवा तादात्म्यता न होने से मनुष्य समाज, राष्ट्र एवं विश्व के साथ आत्मीयता से अलग-थलग पड़ जाएगा, अपनी मानसिक शान्ति भी खो बैठेगा ! अमेरिका आदि पाश्चात्य देशों में प्रायः यही हो रहा है । वहाँ बाप-बेटे के साथ, पड़ौसी के साथ, पति-पत्नी में आत्मीयता का आनन्द नहीं आता, क्योंकि वहाँ प्रायः सभी भौतिक स्वार्थ में सने हुए होते हैं । स्पष्ट है कि मनुष्य की आध्यात्मिक - भौतिक सभी आवश्यकताएँ आत्मविकास पर आधारित हैं । इसलिए आत्मा के साथ शरीर और शरीर से सम्बन्धित सान्निध्य से शुद्ध आत्मा का विकास नहीं हो सकता । अमेरिकावासी लोग आत्मविकास नहीं कर पाते। इसमें कारण यही है कि उपासना की पगडंडी पर वे चलना नहीं चाहते । इसके अतिरिक्त साम्यवाद के, अध्यात्मवादी दिशा का उपेक्षापूर्ण एकांगी चिन्तन, के घोर दुष्परिणाम भौतिक जीवन को भी प्रभावित किये बिना नहीं रहते । अध्यात्मदिशाविहीन केवल श्रम व्यक्तियों को उबाने, थकाने और मानसिक अशान्ति पैदा करने वाला बन जाता है। रेलगाड़ी चौबीस घंटे चलती ही रहे, उसे कुछ स्टेशनों के पश्चात् रोककर पानी और ईंधन की पूर्ति न की जाए तो क्या वह जलती रह सकेगी ? मशीन चलती ही रहे उसे सतत चलाने हेतु शिफ्टें बदलकर मजदूर लगाते रहा जाए तो वह कितने दिन चल सकती है ? विश्राम के क्षणों में भी मनोविनोद या मनोरंजन की सुविधा न हो तो व्यक्ति ऊब जाएगा, उसका आयुष्य आधा रह जायगा । अतः जीवन की शुष्कता किसी भी क्षेत्र में घातक प्रतिफल उत्पन्न करती है । यही कारण है कि साम्यवादी देशों में केवल शारीरिक श्रम की कल्पना ने लोगों के मन पर ऐसा बोझ डाल दिया है कि वे स्वयं को दबे, पीसे और दमघुटे हुए महसूस करते हैं । अतः आध्यात्मिक, मानसिक एवं शारीरिक स्फूर्ति, क्षमता एवं आनन्द Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003188
Book TitleSaddha Param Dullaha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy