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उपासना का राजमार्ग | ११७
महावीर के द्वारा स्थापित चतुविध श्रमणसंघ के प्रति भी वे वफादार नहीं रह सकते, क्योंकि संघधर्म के पालन से वे किनाराकशी करते हैं ।
उपासना का फलितार्थ
उपासना का फलितार्थ केवल इतना ही नहीं है कि वीतराग तीर्थंकर परमात्मा, निर्ग्रन्थ- महात्मा के प्रति अन्तर् से निकटता रखे, अपितु उनके द्वारा प्ररूपित - स्थापित धर्म संघ (तीर्थ) के प्रति भी आत्मीयता रखे । उनके द्वारा स्थापित धर्मसंघ को, उन्हीं के रूप में देखे । उनकी जो आज्ञाएँ हैं, उनको शिरोधार्य करके उनका वफादारीपूर्वक पालन करे; क्योंकि शास्त्रवचन है- आणाए धम्मो, आणाए तवो, आणाए मामगं धम्मं - आज्ञा-पालन में धर्म है, आज्ञाराधना में तपस्या है, आज्ञा-पालन में मेरा धर्म है | आचार्य हेमचन्द्र ने तो स्पष्ट शब्दों में कहा है
'तव सपर्यास्तवाज्ञा - परिपालनम्'
'भगवन् ! आपकी सेवा - पर्युपासना आपकी आज्ञाओं का परिपालन है ।'
उपासना का प्रयोजन
तीर्थंकर परमात्मा, सिद्ध प्रभु, निर्ग्रन्थ गुरु आदि महान् आत्माओं की उपासना इसीलिए की जाती है कि परमात्मा और महात्मा हमें याद आएँ । मानसिक चिन्तन और शारीरिक कर्तव्य में परमात्मा एवं महात्मा की महत्ता को ओतप्रोत करने, उनसे तादात्म्य स्थापित करने, प्रत्येक शारीरिक-मानसिक एवं आध्यात्मिक प्रवृत्ति में परमात्मा एवं महात्मा को दृष्टिसमक्ष रखने की आवश्यकता महसूस हो ताकि कोई प्रवृत्ति पापकर्म या कषायादि विकारों से दूषित न हो। साथ ही इस बात का भी भान रहे कि परमात्मा - महात्मा और साधारण आत्मा मिलजुल कर - एक होकर रहें तो उससे जीवन में आनन्द एवं हर्ष विस्तृत होगा ।
उपासना की आवश्यकता क्या और क्यों ?
साम्यवाद या नास्तिकवाद के कट्टर समर्थक उपासना को महज समय की बरबादी एवं रूढ़िभक्त बुजुआ संस्कार बताकर जन-जीवन में उपासना के प्रति अश्रद्धा पैदा करते हैं । उनका तर्क यह है कि उतने समय का उपयोग उपार्जन में पुरुषार्थ करके किया जाए तो औद्योगिक विकास एवं राष्ट्रीय धन बढ़ता है, प्रकारान्तर से उसका लाभ समग्र राष्ट्र और समाज को ही मिलेगा ।
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